शनिवार, 25 दिसंबर 2010

जान बची लाखों पाए -- लौट के पदयात्रा से घर को आए -- बाबा धाम यात्रा -- अंतिम भाग


हमने अपना सामान संभाला और धर्मशाला से बाहर निकले। देखा की मेरी लाठी गायब है। उसकी जगह कोई अपनी पतली सी लाठी छोड़कर चला गया था। मैनें वह लाठी सुईया पहाड़ के नीचे बह रही नदी में पायी थी। अच्छी मोटी लाठी थी,जो कि सफ़र में सहारा बनी हुई थी। मुझे लाठी न पाकर अफ़सोस हुआ कि चोरों की निगाह लाठी पर भी है। अगर कोई जरुरतमंद मांग लेता तो मैं दे देता। अब छड़ी से ही काम चलाना पड़ेगा सोचकर मैने छड़ी उठाकर यात्रा प्रारंभ कर दी। जब चलने लगा तो ऐसा लगा कि बहुत ही फ़ुर्ती आ गयी है। मैने देवी से कहा कि –“मैं आगे निकल रहा हूँ मेरे से धीरे नहीं चला जा रहा है। अगले स्टाप पर मिलता हूँ। मैं दौड़ता ही जा रहा था। कदम रुक ही नहीं रहे थे। इस तरह लगातार ढाई घन्टे चला।
एक धर्मशाला नजर आई, मुझे गोहाटी में एक सज्जन मिले थे और इस धर्मशाला में आने का विनम्र आग्रह किया था। इस आसाम की धर्मशाला को देख कर मुझे उनकी याद आ गयी। मैने जल रखा और धर्मशाला के अंदर गया। बहुत बड़ी जगह में धर्मशाला निर्माण किया गया था और अस्थाई टेंट लगा कर भी रुकने की व्यवस्था की गयी थी। मैने सोचा की सब लोग पीछे हैं तो थोड़ी रुक जाता हूँ। मैने पानी पीया ही था। तभी गेट की तरफ़ मेरी निगाह गई तो देवी जैसा कोई दिखाई दिया। मैने पानी का गिलास फ़ेक कर दौड़ लगाई तो देखा हमारे ही साथी थे। वे भी रफ़्तार से ही चल रहे थे। अगर मैं देख नहीं पाता तो उनसे पीछे रह जाता और हम बिछड़ जाते।
आठ बज रहे थे। अचानक मुसलाधार वर्षा होने लगी। हमें किसी भी तरह टनटनिया तक जाना था। हमने एक टैंट में शरण ली। मैं तख्त पर बैठा तो बैठा ही नहीं गया। पिंडलियों को हाथ लगाया तो वे पत्थर जैसी हो चुकी थी। देवी भाई ने जैसे ही मेरी पिंडली को दबाया तो दर्द के मारे आँख से आँसू निकल आए। बहुत ही अधिक दर्द था। बरसात रुकने लगी। बरसात रुकते ही हमने फ़िर से चलने का मन बना लिया। हम चल पड़े, जमीन ठंडी हो चुकी थी। हमने बिहार की सीमा से बाहर निकल कर झारखंड की सीमा में स्थित कलकतिया में रुकने का मन बनाया। लगभग 10/30 बजे कलकतिया पहुंचे और एक झोपड़ी में देरा लगाया। यहाँ पहुंच कर लगा कि अब हम बाबा धाम पहुंच गए हैं। रात को चावल और सब्जी खाई। सोने के समय न जाने कहां से मच्छर आ गए। ओडोमास का प्रयोग किया गया कि नींद आ जाए उसके बाद तो चाहे मच्छर उड़ा ही ले जाएं।
सुबह स्नान ध्यान के पश्चात 6 बजे हमने एक बार फ़िर चलना शुरु किया। यह हमारी यात्रा का अंतिम चरण था। 7 बजे मैं भूत बंगला पहुंच गया था। जहां से मंदिर सिर्फ़ 2 किलोमीटर दूर है। यहां रुक कर मैने साथियों का इंतजार किया। वे आधे घंटे विलंब से पहुंचे। नीनी महाराज गुस्सा हो रहे थे और कह रहे थे कि जितना हम मंजिल के नजदीक पहुंचते जा रहे हैं देवी की रफ़्तार कम होते जा रही है। हम धोबी तालाब का एक चक्कर लगा कर मंदिर के पास पहुचे। दर्शनिया से बोल बम की एक किलोमीटर लम्बी कतार लगी हुई थी। हम भी धीरे धीरे सरकते रहे उनके साथ। दो घंटे बाद हम मंदिर के दरवाजे तक पहुंचे। अंदर जाने पर देखा कि तीन मंजिल के प्लेट फ़ार्म पर रस्सीयाँ बांध कर भूल भूलैया जैसा बनाया गया है। बीच में दो चार ढोल बजाने वाले है और पुलिस वाले सभी को इन रस्सियों के बीच से दौड़ा रहे हैं। हम भी दौड़े तब कहीं जाकर बाबा के मुख्य दरवाजे तक पहुंचे।
मंदिर का मुख्य दरवाजा छोटा है और वहां पर पुलिस का पहरा। 50-60 कांवड़ियों के दल को एक साथ छोड़ा जाता है। मंदिर के अंदर पहुंच कर मैने जल चढाया और विग्रह को हाथ से छूने के लिए शिवलिंग के सामने बैठ गया। बैठते ही पंडो ने छड़ी चलानी शुरु कर दी। सिर पर छड़ी से मारने लगे। उठो उठो, मैने अपने हाथ में रखे 20 रुपए का एक नोट उसे दिया। तो दूसरे पंडे की छडी चलनी शुरु हो गयी। इसके बाद मैने उठने की कोशिश की। लेकिन लोगों के हूजुम ने मेरे कंधे दबा दिए। मैं उठ ही नहीं सका। पूरी ताकत लगाई फ़िर भी दरवाजे से आते हुई भीड़ मेरे कंधों पर ही आ पड़ती थी। फ़र्श गीला होने के कारण पैर जम नही पा रहे थे। उपर से छड़ी की मार असह्य हो रही थी। एक बार फ़िर ताकत लगाई तो उठ पाया और मंदिर के बाहर दौड़ कर निकला तब सांस ली। एक बारगी तो लगा कि जान ही निकल जाएगी।
बैद्यनाथ मंदिर का वास्तु शिल्प 7 वीं शताब्दी का और बलूए पत्थर से निर्मित है। इसके सामने आंगन के उस पार पार्वती माता का मन्दिर है। इस प्रांगण में बहुत भीड़ थी। सभी पंडों ने अपनी अपनी चौकियां लगा रखी थी। जिस पर बैठ कर अपने नए पुराने जजमानों की जेब ढीली कर रहे थे। हम लोग भी खाना खाकर आराम करने के लिए पंडे के घर चले गए। मैने दो घंटे आराम किया। नीनी महाराज और देवी घुमने चले गए थे। मै और उमाशंकर बाहर निकले, सेविंग कराई,चप्पल खरीदे, चाट खाई और पुन: मंदिर की ओर चल पड़े। उमाशंकर शयन आरती करना चाहते थे। तभी डॉक्टर का फ़ोन आया उसने पूछा कि हम कहां है? मैने बताया कि पंडे के पास बैठा हूँ मंदिर में यहीं आकर मिल लें। हम सब मंदिर में मिले। बिछड़े हुए एक दिन हो गया था।
रात को भोजन के पश्चात हम आटो से जस्सीडीह पहुंचे, जस्सीडीह लगभग 12 किलोमीटर है देवघर से। टिकिट हमारे पास ही थी, इसलिए दूसरे दल को हमारे पास ही आना था। रात को डेढ बजे साऊथ बिहार एक्सप्रेस आई। हम सबने अपनी-अपनी बर्थ संभाल ली। दोपहर तक सोते रहे। 12 बजे टाटानगर में इडली  का प्रसाद लिया। इडली लेते हुए टाटानगर में कहीं मेरी जेब से पैसे गिर गए। तो दिनेश से मुझे घर तक पहुंचने के लिए 30 रुपए लेने पड़े। 21 जुलाई की रात साढे नौ बजे हम रायपुर पहुंचे। स्टेशन पर रवि श्रीवास मौजुद थे। उन्होने मुझे स्टेशन से काली बाड़ी तक पहुंचाया। जहां से मुझे रात को जगदलपुर वाली बस मिली। घर पहुंच कर मुझे लगा कि एक बार फ़िर इस यात्रा पर चलना चाहिए। बहुत स्फ़ूर्ति दी इस यात्रा ने। एक असंभव सी लगने वाली पदयात्रा सम्पन्न करके मेरा रोम-रोम खुशी से भर उठा। एक बार फ़िर इस यात्रा को करने की तमन्ना है।
Indli - Hindi News, Blogs, Links