शनिवार, 25 जून 2011

भुतहा रेस्ट हाउस--यात्रा बांधवगढ -- अंतिम भाग

वापसी की यात्रा पहाड़ से उतरने वाली थी। सभी धड़ल्ले से उतर रहे थे। सुमीत भी एक झटके में ही नीचे उतर आया। रास्ते में मुझे एक कोटपुतली राजस्थान के श्रद्धालु मिले। उनकी चुंदड़ी वाली पगड़ी देख कर उनसे कुछ बात चीत की। उन्होने बताया कि लगभग डेढ सौ साल पहले उनका परिवार कबीर साहब का अनुयायी बना था। तब से पीढी दर पीढी हम निभा रहे हैं। एक परिवार दार्जलिंग से आया हुआ था। इस परिवार के मुखिया देवमणि जी से मेरी कई किलोमीटर तक चर्चा हुई। उन्होने भी बताया कि लगभग 200 वर्षों से उनका परिवार कबीर पंथ का अनुयायी रहा है। इनके साथ कई माताएं भी आई थी दार्जलिंग से। उनका उत्साह देखते ही बनता था। इन्होने अपना सामान चाय तोड़ने की टोकरी की तरह सिर पर टांक रखा था। भारत के कई राज्यों से श्रद्धालु पहुंचे थे।

वापसी पर जंगल के रास्ते में हमें हिरण, जंगली सुअर, चिंकारा आदि देखने मिले। जो नाले में पानी पी रहे थे। देवमणि से बातें करते हुए मैं सुमीत और गुड्डु से पीछे रह गया था। ये काफ़ी आगे बढ गए। जब देवमणि के पीछे छुटने वाले परिवार का फ़ोन आया तो मैने उन्हे रुकने के लिए कहा और आगे बढ गया। थोड़ी देर चलने के बाद सुमीत लोग दिखाई दे गए। जल्दी जल्दी कदम बढाने पर उनके पास पहुंच गया। जब अभ्यारण का गेट दिखाई दिया तो लगा कि बांधवगढ को हमने फ़तह कर लिया। गेट पर फ़ारेस्ट के गार्ड और रेंजर दिए गए पास वापस ले रहे थे और उस पास में लिखी हुई संख्या को गिन रहे थे। कहीं कोई जंगल में रह जाए और कोई हादसा हो जाए तो लेने के देन पड़ जाएगें। हमने भी अपना अनुमति पत्र उनके पास जमा करा दिया।

कबीर पंथ के प्रथम गुरु धनी धर्मदास और आमीन माता मंदिर
होटल पहुंचने पर टांगे जवाब दे चुकी थी। क्योंकि बीस किलोमीटर रिकार्ड समय में लगातार चलना मामुली नहीं है। ठंड बढ चुकी थी। पानी ठिठुर रहा था। गर्म पानी मंगाकर पैरों की सिकाई की गयी और तय किया की भोजन करके कुछ देर सोया जाए और आधी रात को उठकर वापसी की जाए। भोजन करके सो गए। रात डेढ बजे मेरी नींद खुली। मैने इन्हे जगाया। बड़ी मुस्किल से दोनो महानुभाव उठे। सामान पैक किया गया। होटल का बिल चुकाया। वैसे नर्मदा लाज रुकने ले लिए उत्तम है और यहां के रसोईए ने उम्दा खाना खिलाया। रेट कुछ ज्यादा था लेकिन उम्दा खाने ने कसर पूरी कर दी। मैने स्कार्पियों की बीच वाली सीट पकड़ी, गुड्डू ने पिछली सीट और सुमीत ने ड्रायवर के साथ वाली। गाड़ी चल पड़ी बांधवगढ से अपने गंतव्य की ओर।

गुड्डू के खर्राटे शुरु हो गए। मैने शंका होने पर जंगल में गाड़ी रुकवाई, गाड़ी में हीटर चल रहा था बाहर निकलते ही ठंड का पता चल गया। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। जल्दी से गाड़ी में घुस कर मैने सोने का यत्न किया लेकिन नींद नही आ रही थी। सुबह 4 बजे के बाद नींद आई तो सपने में एक भयानक चुड़ैल का चेहरा दिखाई दिया। मैं उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था। लेकिन उसका चेहरा लगातार बदलता जा रहा था। उसके रुप बदलते जा रहे थे। मुझे कह रही थी कि –“ अब तुम्हारा समय पूरा हो गया है, तुम्हे मेरे साथ चलना ही पड़ेगा।“ फ़िर उसके चेहरे का रंग अनवरत बदलने लगा। मैं उसे गाली दी और गन की ओर हाथ बढा रहा था। गन मेरे हाथ से दूर छिटकते जा रही थी। तभी मेरी आँख खुली तो देखा कि गाड़ी जंगल में खड़ी है। मैने गाड़ी रुकने का कारण पूछा तो सुमीत बोला नींद आ रही है। 

मैने कहा कि अब तुम लोग सो जाओ,गाड़ी मैं चलाता हूँ। मैने ड्रायविंग सीट संभाली तो मील का पत्थर बता रहा था कि केंवची 18 किलोमीटर है। केंवची पहुंच कर मैने गाड़ी एक होटल में लगाई चाय पीने के लिए। गाड़ी से निकल कर चाय बनते तक ठिठुर चुका था। होटल की भट्टी की आँच भी गरमाहट नहीं दे रही थी। मिस्त्री ने बताया कि दो दिनों से यहां पाला पड़ रहा है। पानी जमने लगा है। जल्दी से चाय के घुंट लेकर मैं आगे बढ लिया। केंवची से अचानकमार टायगर अभ्यारण प्रारंभ हो जाता है। जंगल के बीच पहाड़ी घुमावदार पहाड़ी रास्ते पर इतने मोड़ हैं कि गिनती ही नहीं हो सकती। सर्पीला रास्ता गाड़ी की स्पीड बढाने ही नहीं दे रहा था।  

सूर्योदय हो रहा था, सामने सूरज की किरणे सीधे ही चेहरे पर पड़ती थी तो रास्ता दिखाई नहीं देता था। अचानकमार अभ्यारण में रात में भारी वाहनों का प्रवेश वर्जित है तथा साथ में यह भी हिदायत है कि रात 6 बजे से सुबह 8 बजे तक अभ्यारण में कहीं पर वाहन खड़ा नहीं कर सकते। यहाँ भी शेर देखे जाते हैं। लेकिन बांधवगढ जैसे अचानकमार में शेर का लोकेशन फ़ारेस्ट के लोगों को पता नहीं रहता। शेर यहां वहां घुमते हुए दिखाई दे जाते हैं। अचानकमार अभ्यारण में कई गांव भी हैं जहां लोगों की बसाहट है। यहां प्रकाश के लिए सोलर लाईटें लगी है और ठंड भी अन्य क्षे्त्रों की अपेक्षा अधिक ही पड़ती है। पिछली बार मुझे गर्म कोट पहनना ही पड़ गया था। जबकि पेंड्रारोड़ में ठंड नहीं थी। वैसे भी जंगली इलाके में ठंड का असर कु्छ अधिक ही होता है। ग्रामीण आग जलाकर घर को गर्म कर लेते हैं और महुआ रस पीकर तन को। इस प्रकार ठंड से उनका बचाव हो जाता है।

अचानकमार के जंगल के छपरवा गांव में फ़ारेस्ट का एक रेस्टहाउस है। जिसमें भूतों का डेरा है। स्टार न्युज के “डरना मना है’ कार्यक्रम में इस रेस्ट हाउस के विषय में एक स्टोरी देखी थी। तब से मेरे इच्छा है कि एक रात इस रेस्ट हाऊस में जरुर गुजारुं और भूतों से मुलाकात करुं। स्टोरी में रायपुर के एक परिवार के बारे में ही बताया गया था कि वे रात को छपरवा रेस्ट हाउस में रुक गए थे। जब खाना खाने लगे तो उन्हे पर्दे हिलते हुए नजर आने लगे कि जैसे परदे की पीछे कोई है। फ़िर उन्हे छाया दिखाई देने लगी। कहते हैं कि चौकीदार ने उन्हे रुकने से मना किया था। लेकिन वे नहीं माने। फ़िर कोई आकृति दिखाई दी। थोड़ी देर के बाद सब शांत हो गया। लेकिन वे सब आपस में ही लड़ने लगे और एक दुसरे को मरने मारने पर उतारु हो गए। किसी तरह वे रात को रेस्ट हाउस से बाहर निकल कर भागे तो उनकी जान बची।

इस तरह की घटना और भी लोगों के साथ हो चुकी है। बताते हैं कि यहां किसी ने अपनी पत्नी को जला दिया था। तब से वही लोगों को नजर आती है। रात को इस रेस्ट हाउस में कोई रुकता नहीं है। मैने जब से यह स्टोरी देखी है तब से इस रेस्ट हाउस में एक रात गुजारने का मन बना चुका हूँ लेकिन वह रात कब आएगी? यह अभी तय नहीं हुआ है। यह रेस्ट हाऊस मेरे सामने आया तो मैं गाड़ी से उतरकर रेस्ट हाउस को देखा। सुबह का समय  था इसलिए चौकीदार दिखाई नहीं दिया। वह रात नहीं रुकता शायद अपने घर चला जाता है।  मैने रेस्ट हाउस की फ़ोटो ली  और आगे की यात्रा जारी रखी। यह रेस्ट हाउस अचानकमार अभ्यारण्य के घनचोर जंगल में है। मैं भूत प्रेत इत्यादि को मानता नहीं  हूँ अगर कोई ब्लॉगर मित्र मेरे साथ इस रेस्ट हाउस में रात रुकना चाहता है तो उसका स्वागत है।

अभ्यारण्य में दो जगह गाड़ी के नम्बर एवं ड्रायवर का नाम लिखा जाता है। एक जांच चौकी बनी है। ताकि अनाधिकृत रुप से कोई शिकारी वन्य जीवों को नुकसान ना पहुंचा दे। वन्य प्राणियों की सुरक्षा की दृष्टि से आने जाने वालों की जानकारी रखना आवश्यक है। अचानकमार के जंगल से मैं लगभग नौ बजे बाहर निकल चुका था। मुझे लगा कि गाड़ी में एक सवारी कम है। मैने ड्रायवर से पूछा कि गुड्डू कहां है? तो पता चला कि उसे पेंड्रारोड़ से लिया था वहीं छोड़ दिया गया है। मैने लगातार नांदघाट तक गाड़ी ड्राईव की। यहां चाय नास्ता करने के बाद सुमीत ने स्टेयरिंग संभाल लिया। सुमीत गाड़ी कमाल की ड्राईव करता है। जब यह गाड़ी चलाता है तो मैं चैन से सो जाता हूँ। इसने मुझे साढे 12 बजे घर पहुंचा दिया। इस त्तरह हमारी बांधवगढ की यात्रा सम्पन्न हुई।

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गुरुवार, 23 जून 2011

बांधवगढ के किले तक पदयात्रा --- यात्रा - 3

हमें पेंड्रारोड़ के पड़ाव को छोड़ना था और जाना था  बांधवगढ की ओर। होटल पहुंच कर सामान उठाया चल पड़े मंजिल की ओर। वेंकट नगर से हमने मध्यप्रदेश में प्रवेश किया। अनूपपुर होते हुए शहडोल पहुंचे। रास्ते में चचाई पावर प्लांट के पास एक होटल में खाना खाया। उमरिया से बांधव गढ के लिए रास्ता है। 15 किलोमीटर की यह सड़क खराब है। रात को ढाई बजे हम ताला गांव याने बांधवगढ पहुंचे। यहां पहुंचने पर पता चला कि सभी रिजोर्ट और होटल फ़ुल चल रहे हैं। एक रिजोर्ट में गए तो उसने 2000 से कम कोई भी कमरा उपलब्ध नहीं है बताया। तब हमने उससे पूछा कि और किस जगह कमरा मिल सकता है। तो उसने नर्मदा लाज का पता बताया। हम नर्मदा लाज में पहुंचे वहां भी उसने 2000 और 1500 रुपए ही बताए। लेकिन मैने थोड़ा मोल भाव किया तो 800 रुपए में वह तैयार हो गया। ठंड इतनी अधिक थी कि पानी जम रहा था। इसलिए एसी रुम की जरुरत ही नहीं थी। अलबत्ता डबल कंबल के बिना ठंड नहीं रुकने वाली थी। इसलिए हमने और कम्बल लिए। 

बांधवगढ अभ्यारण्य का मेन गेट
बांधवगढ का किला वर्ष में एक बार कबीर दर्शन के नाम से खुलता है। इस दिन हजारों कबीर पंथी श्रद्धालु यहां दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं। इस दिन यहां प्रवेश शुल्क की छूट रहती है। अन्य दिनों में 6 सवारियों के लिए 1200 रुपए की टिकिट और 2700 रुपए जिप्सी का चार्ज लगता है। किले तक नहीं ले जाया जाता। सिर्फ़ शेर दिखाया जाता है। हमें बताया गया कि किले तक की यात्रा पैदल करनी पड़ेगी। गाड़ी ले जाने की मनाही है। अभ्यारण होने के कारण उसके नियमों का पालन करना पड़ेगा। यहां के डायरेक्टर पाटिल ने सिर्फ़ एक ही गाड़ी ले जाने की अनुमति दी थी जिसमें दामाखेड़ा गद्दी के गुरु जी प्रकाश मुनि नाम साहेब जी ही जाएगें। हम 9 बजे करीब अभ्यारण के गेट पर पहुंचे तो वहां जाने वालों की कतार लगी हुई थी। सारी स्थिति को समझ कर हमने तय किया कि सबसे पहले पेट भर कर नास्ता किया जाए और पानी साथ में रख लिया जाए।

हमने डबल नास्ता किया और 4 बोतल पानी साथ में रख लिया। अनुमति पत्र तो मैं पहले ही बनवा चुका था। अभ्यारण में किले तक लगभग 6 किलो मीटर चलना पड़ता है फ़िर किले के लिए 4 किलोमीटर की पहाड़ी चढाई करनी पड़ती है। रास्ते में खाने पीने के लिए कुछ भी उपलब्ध नहीं है। इसलिए बाहर से ही तैयार होकर जाना पड़ता है। हमने भी अंदर का हाल नहीं देखा था। फ़िर भी 10 बजे हमने पैदल यात्रा प्रारंभ की। जय कारा लगाया बोल बाबा की जय और चल पड़े। रास्ते में प्राकृतिक सौंदर्य का रस पान करते हुए आनंदित हो रहे थे। भक्तों का रेला छोटे बच्चों के साथ चल रहा था। किले के रास्ते को छोड़ कर अन्य रास्तों पर गार्ड लगे थे।

जहां शेर मौजुद था वहां हाथी खड़े कर रखे थे।हम भी गपशप करते चल रहे थे। किले में पहुंचते ही पहली चढाई पर पहाड़ में खोद कर बनाई हुई घुड़साल नजर आई। इसमें कई दरवाजे एक साथ हैं। मैने अंदाजा लगाया कि राजा लोग किले तक रथ या बैलगाड़ी से आते होगें। उसके बाद मैदान में बैलगाड़ी या रथ छोड़कर पहाड़ पर चढने लिए घोड़े का उपयोग करते होगें। इसलिए किले के प्रारंभ में ही घुड़साल बनाई गयी है। धीरे धीरे चढाई चढते रहे। सुमीत भी जोर आजमा रहा था। 103 किलो वजन होने के बाद भी उसकी हिम्मत काबिले तारीफ़ है। मैं शार्टकट के चक्कर में रास्ते को छोड़ कर सीधी चढाई चढ रहा था। एक बार सुमीत को भी चढाया लेकिन बाद में उसने हाथ खड़े कर दिए।

सुमीत दास, ललित शर्मा, शरद(गुड्डु) शेष शय्या के सामने
सबसे पहले शेषशय्या आती है। जहां 35 फ़ुट लम्बे पत्थर को तराश कर सात फ़नों वाले शेषनाग पर विष्णु भगवान लेटे हैं। विष्णु भगवान को समृद्धि और एश्वर्य का देवता माना जाता है। इस प्रतिमा को कलचुरी राजा युवराजदेव के मंत्री गोल्लक ने 10 वीं सदी ईसवीं में बनवाया था। यह मुर्ती बलुवा पत्थर से निर्मित है। मूर्ती के चरणों के पास से एक झरना झरना निकल रहा है इसे चरण गंगा का नाम दिया गया है। पुराणों में इसे वेत्रावली गंगा कहा गया है। चरण गंगा सदानीर जल स्रोत है यहां कई नाले आकर मिलते हैं यह बांधवगढ के वन्यजीवों के लिए जीवन धारा के समान है। चरणगंगा से ताला स्थित पर्यटक संकुल को एवं कई गावों को पानी मिलता है। इस कुंड में काई जमने से पानी हरा हो गया है।
 
यहां से सीधी चढाई शुरु हो जाती है। एक जगह पर मेरे हाथ के पास खुजली हुई। मैने मुड़ कर देखा तो एक पेड़ दिखाई दिया। जिसमें केंवाच की फ़ली लटकी हुई थी। उसे किसी ने हिला दिया था। उसके रेसे हवा में तैर रहे थे। मैं तो तुरंत ही भागा वहां से, कुछ लोग खड़े रहे  बाद में क्या हाल हुआ होगा उनका राम ही जाने। हम किले के मुख्य दरवाजे तक पहुंच गए। तो लगा कि अब पहुच ही गए। लेकिन यहां से दो किलोमीटर और चलना था कबीर तलैया तक। उबड़ खाबड़ रस्ते पर चलते हुए दुसरे दरवाजे तक पहुंचे तो वहां भग्न अवस्था में एक बजरंगबली का मंदिर दिखा। उसके बाद तीसरा दरवाजा आया वहां भी बजरंग बली का मंदिर था। 

इसके आगे चलने पर देखा की लोग एक पेड़ की पत्तियाँ तोड़ने में लगे हुए थे किसी ने इस पेड़ के विषय में कह दिया कि इसकी पत्तियाँ गठिया वात रोग के इलाज में काम आती है। बस फ़िर क्या था लोग लग गए तोड़ने। मैं उनकी फ़ोटो ले रहा था। तभी मुझे उस पेड़ में भी केंवाच की बेल दिखाई दी। लोगों को बताने के बाद भी नहीं माने। मेरे से  ही पूछ रहे थे कि केंवाच क्या होता है। भैया जब तक गोबर से नहीं नहा लेगें तब तक केंवाच ही केवांच रटते रहगें और खुजाते रहेगें। अब भीड़ को कौन समझाए। शायद वे लोग अभी तक खुजा रहे होगें और कह रहे होंगे की फ़ौजी की बात मान ही लेते तो यह दिन नहीं देखना पड़ता।
 
रास्ते में एक बड़ा पक्का तालाब मिला। इसका पानी भी निकासी नहीं होने के कारण हरा हो गया था। तभी मुझे उसमें तैरता हुआ एक मगरमच्छ दिखाई दिया। कैमरे को जूम करने के बाद भी उसकी फ़ोटो नहीं आई। तालाब बहुत बड़ा है। कहते हैं कि किले में 12 तालाब हैं जिसमें से 2 तो हमने देखे बाकी का पता नहीं। इन तालाबों में बारहों महीने पानी भरा रहता है। किले की इमारते तो उजड़ गयी है। लेकिन कुछ मंदिर अभी बचे हुए हैं। किंवदंती है कि रावण को मारने के बाद राम इस जंगल में से गुजरे थे तो उन्होने अपने भाई लक्ष्मण को भेंट करने के लिए इस किले का निर्माण कराया था। इसीलिए इसका नाम बांधवगढ पड़ा। 

घुड़साल में दो घोड़े
किंवदंती की बात छोड़ दें तो यह किला 552 एकड़ में फ़ैला है। समुद्र तल से 811 मीटर की उचाई पर स्थित है। इसका निर्माण तीसरी शताब्दी में हुआ था। तीसरी सदी से लेकर 20 वीं सदी तक वाकटक, कलचुरी, सोलंकी, कुरुवंशी और बघेल राजवंशों ने यहां से राज किया। सोलहवीं सदी में संत कबीर भी यहां कुछ वर्ष रहे थे। जब शेरशाह सूरी हूमायुं का पीछा कर रहा था तब किले में मुगल बादशाह हूमायुं की बेगम को भी शरण मिली थी। इसका अहसान चुकाते हुए हूमायुं के बेटे अकबर ने बांधवगढ के नाम से चांदी के सिक्के जारी किए थे। 1617 में बघेल अपने राज्य की राजधानी रींवा ले गए और उसके बाद इस किले को खाली कर दिया गया तब से इस पर वन्य जीवों का ही कब्जा है। शेर भी यहां घुमते रहते है।

आगे चलने पर हम कबीर तलैया पहुंचे। यहां पर लोग स्नान कर रहे थे। कोई मुंडन करवा रहा था। कोई इसका जल बोतल में भर कर ले जा रहा था जिससे वह इसका उपयोग गंगा जल की तरह पवित्री करण के लिए कर सके। कोई रास्ते में बैठकर भोजन कर रहा था। यहां पहुच कर तो मेला ही लगा हुआ था। हमें भी यहां पहुंच कर अहसास हुआ की कुछ भोजन सामग्री ले कर आना था। क्योंकि भूख लगने लगी थी और यहां कुछ मिलता नहीं है। दो आदमी एक जगह पर चूना पत्थर तोड़ रहे थे। उन्हे मैने भी देखा था तब गुड्डु ने बताया कि एक कह रहा था कि आधा आधा रख लेते हैं साल भर चंदन नहीं खरीदना पड़ेगा। सुनने वाले और हम हँस पड़े। कबीर दास जी ने जिस पाखंड का विरोध किया था। उसका अनुशरण करना छूटा नहीं है।

कबीर गुफ़ा पर श्रद्धालु
जिस स्थान पर कबीरदास जी निवास करते थे वहां एक गुफ़ा है। उस गुफ़ा में दर्शन करने वालों का तांता लगा हुआ था। उसके पास ही महंत लोग बैठे थे अपने-अपने जजमान को मुड़ने के लिए। एक गाड़ी में पानी लाया गया था उसके लिए लोग मारा मारी कर रहे थे। प्रशासन को यहां कम से कम पानी की व्यवस्था तो करनी ही चाहिए थी। हमारे साथ यात्रा पर एक बूढी माई भी थी, जिनकी उम्र 94 वर्ष थी वे झुकी कमर से पैदल चल कर यहां तक पहुंची थी। एक थानेदार ने उन्हे अपनी जिप्सी में बैठा लिया और खाने का पैकेट दिया। उसे आश्वस्त किया कि जब वे नीचे जाएंगे तो अपने साथ उसे गाड़ी में ले जाएगें। 

94 वर्षीय माई और थानेदार धुर्वे
आस्था बलवान होती है। उस आस्था के बल पर माई इतनी दूर पैदल चली आई।अब वापसी की तैयारी थी। सुमीत चित्त हो रहा था लेकिन वापिस तो जाना ही था। वापसी में कबीर तलैया की दुसरी तरफ़ धनी धर्मदास और आमीन माता का स्थान बना हुआ है। बताते हैं कि यहां पर कबीर दास जी उन्हे उपदेश दिया करते थे। यहां पर भी हम गए। श्रद्धालु इस स्थान पर नारियल और अगरबत्ती जला रहे थे। किले में मुझे बजरंगबली के कई मंदिरों के भग्नावेश दिखाई दिए। इससे महसूस हुआ कि तत्कालीन राजा हनुमान जी के बड़े भक्त रहे होगें। एक जगह पर हनुमान जी के मंदिर के सामने एक लोहे का गदानुमा सामान पड़ा था जिसे उठाकर लोग जोर आजमाईश कर रहे थे। मैने उठाया लेकिन उसका हत्था छोटा होने के कारण हाथ से फ़िसल जाता था। यहां पर राजाओं द्वारा बनाई गयी सैनिक छावनी के भी अवशेष दिखाई दिए। लेकिन राजा के रहने के महल इत्यादि का ठिकाना नहीं मिल सका। पूरे किले में घना जंगल खड़ा हुआ है। कहां से कौन जानवर निकल आए पता नहीं। इसलिए हमने मुख्य मार्ग छोड़कर अन्य कहीं तलाश करने का यत्न नही किया।

अचिंत दास
कबीर पंथ गुरु गद्दी दामाखेड़ा के गद्दीनशीन प्रकाश मुनि नाम साहेब के मुख्य कार्य सहयोगी अचिंत दास से सुबह बांधवगढ में मुलाकात हुई। इस आयोजन के लिए इन्होने बहुत मेहनत की। शासकीय अनुमति से लेकर श्रद्धालुओं के हाल चाल पुछने तक। अभ्यारण्य के डायरेक्टर पाटिल ने इन्हे सिर्फ़ एक ही वाहन किले तक ले जाने की अनुमति दी। ये मंत्री से लेकर संत्री तक फ़ोन लगाते रहे कि और वाहनों की अनुमति मिल जाए। लेकिन उन्हे प्रयास में सफ़लता नहीं मिली। हमारे रुम में ही सदा मुस्कुराने वाले इनके मनमोहक चेहरे का दीदार सुबह ही हो गया था। हमने साथ-साथ ही प्रातराश लिया और ये हमारे साथ अभ्यारण्य के मुख्यद्वार तक आए। अचिंत दास विगत 25 वर्षों से दामाखेड़ा गुरु गद्दी की सेवा में लगे हैं। साहेब बंदगी साहेब
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दो लड़कियाँ-और गांव का हाट-- यात्रा-2

शाम हो रही थी। शोण कुंड के पास ही साप्ताहिक हाट लगा हुआ था। छत्तीसगढ में सुदूर अंचल के गावों में साप्ताहिक हाट लगना सामान्य बात है। यहां पर लोग अपने रोजर्मरा के काम आने वाले सामान खरीद लेते है सप्ताह भर के लिए। वस्तु विनिमय भी हो जाता है। इन साप्ताहिक बाजारों का अपना ही महत्व है। पांच सात गावों के मुख्य गांव में यह बाजार लगते है। बाजार में आने वाले लोग अपने आस-पास के गावों में रहने वाले परिजनों से भी मिल लेते हैं। उनका हाल-चाल भी जान लेते है। कुछ समय साथ-साथ बिता लेते हैं। माँ को बेटी मिल जाती है। वह उसका हाल चाल पूछ लेती है। हाट से उसे कुछ सामान दिला देती है। अगर गांव से कुछ सामान लेकर आई है तो वह बेटी तक पहुंच जाता है।

हाट बाजार में आवश्यकता की सभी वस्तुएं मिल जाती है। सब्जी से लेकर इलेक्ट्रानिक सामान तक। सभी दुकाने अस्थाई होती हैं लेकिन उसके लगने की जगह, दिन और समय निश्चित होता है। बाजार का दृश्य मनमोहक होता है। सजी धजी महिलाएं और पुरुष मोल भाव करते नजर आते हैं तो युवा लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे से पहचान बढाते। आधुनिकता के इस दौर में गांव भी अछूते नहीं है मोबाईल क्रांति की मार से। पहले लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे के गांव का पता पूछते थे तो अब मोबाईल नम्बर नोट करते हैं और जान लेते हैं कब बाजार पहुंच रहे हैं।

मेरे मन में हाट बाजार देखने की इच्छा हुई। बाजार तो हमारे गांव में भी भरता है लेकिन यहां का बाजार कुछ भिन्न लगा। बाजार के रास्ते में तालाब के किनारे पेड़ के नीचे एक हीरो होन्डा सवार तराजु लगाए खड़ा था। उसके पास ग्रामीण महिलाएं किलो दो किलो धान बेच कर नगद पैसे ले रही थी जिससे बाजार में कुछ सामान खरीदा जा सके। बाजार में पीपल के पेड़ के नीचे एक कुर्सी पर एक नाई की दुकान चल रही थी। एक ग्राहक उससे हजामत करने कह रहा था। नाई कह रहा था कि बाजार के दिन उधारी में हजामत नहीं करेगा। उधारी में हजामत सिर्फ़ गांव में होगी, बाजार में नहीं। यहां नगदी लगेगा।  

मेरी निगाह बाजार में कपड़े सीलते कुछ दर्जियों पर पड़ी। उसे महिलाएं ब्लाऊज का कपड़ा दे रही थी सीलने के लिए। टेलर नाप जोख ले रहा था कपड़े जमा कर रहा था। अगले बाजार में सील कर लाएगा। ब्लाऊज के लिए एक हफ़्ते का इंतजार तो करना पड़ेगा। एक जगह स्कूल की किताब कापियों की दुकान लगी हुई थी। लोग जूते चप्पल खरीद रहे थे। पास ही एक मोची अपनी रांपी सूजा सूत लेकर बैठा ग्राहक का इंतजार कर रहा था। पॉलिश का काम तो यहां है नहीं लेकिन टूटे जूते चप्पलों की रिपेयरिंग कराने लोग आते हैं। उसने बताया। एक जगह टार्च से लेकर रेड़ियो, वाकमेन और अन्य इलेक्ट्रानिक सामान बेचने वाले की दुकान थी। कुछ लड़के एफ़ एम रेड़ियो खरीदने के लिए मोल भाव कर रहे थे।

उसके पास ही एक तराजु लगा कर महुआ खरीद रहा था। महुआ भी ग्रामीण अंचल के लोगों को नगद उपलब्ध कराता है। गर्मी के सीजन में इमली आ जाती है। ग्रामीण इमली भी इकट्ठी करके बेचते हैं। पास में ही एक होटल चल रहा था। उसमें गरमा-गरम जलेबियां तली जा रही थी। लोग अपने बच्चों के लिए खाई-खजानी खरीद रहे थे। आगे किराने की दुकान लगी हुई थी।दो लड़कियाँ खड़ी हुई किसी का इंतजार कर रही थी। कुछ लोग पान दुकान पर खड़े होकर बतिया रहे थे। एक महिला कपड़े की दुकान वाले को गरिया रही थी कि उसने जो कपड़ा दिया वह खराब निकला। सिलाई अलग से लग गयी मुफ़्त में। कपड़े को रख कर उसका पैसा वापस करो।कुल मिला कर यहीं असल जिन्दगी के मेले देखने मिलते हैं। 

होटल की आड़ में कुछ दूर पर भीड़ लगी थी एक आदमी हंडिया लेकर बैठा था। वह दोने में कुछ डाल कर उन्हे दे रही था। नजदीक जाने पर पता चला कि 3 रुपया दोना महुआ रस पान हो रहा है। एक तरफ़ बैल और भैंसो का बाजार लगा था। बहुत सारे लोग बैल-भैंसा खरीदने आए हुए थे। एक ने बताया की रतनपुर जैसा ही बड़ा मवेशी बाजार यहां भरता है। साप्ताहिक हाट बाजार ग्रामीण अंचल की दैनिक आवश्यकता को पुरी करने के मुख्य साधन है। यहां पर सभी तरह की काम की चीजें आसानी के साथ उपलब्ध हो जाती है। गांव के बाजार भी साप्ताहिक दिनों में बंटे होते हैं। एक के बाद एक दिन अलग-अलग गांव में बाजार लगते हैं। हम भी पान की दुकान से पान खाकर चल पड़े पेंड्रा रोड़ की ओर।
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मंगलवार, 21 जून 2011

मणिधारी सर्प और सोनकुंड से बांधवगढ की ओर - यात्रा-1

र्षों की तमन्ना थी कि कभी बांधवगढ का किला देखा जाए। लेकिन वहाँ जाने का योग ही नहीं बन रहा था। 18 तारीख को सुबह सुमीत का फ़ोन आया कि-“ भैया बांधवगढ़ चलेंगे। मुझे मनचाही मुराद मिल गयी। मैने कहा कि-“कब चलना है? उसने बताया कि आज ही चलते हैं। मैं तुरंत तैयार हो गया। रात को लगभग 9 बजे हम लोग बांधवगढ की ओर चल पड़े। ड्रायवर को मिला कर हम तीन ही थे। पहला पड़ाव हमने पेंड्रारोड़ को बनाया। मैं तो खाना खाकर सो गया। पेंड्रारोड़ में हमने सुरभि लाज में रुम फ़ोन पर बुक कर लिया था। जब भी पेंड्रारोड़ आते हैं तो हम यहीं रुकते हैं। लगभग 3 बजे सुमीत ने जगाया कि-“उठो भैया पेंड्रारोड़ आ गया।“ आंखे मलते हुए देखा तो गाड़ी सुरभि लाज के सामने खड़ी थी। रुम में अंदर होते हैं बिस्तर में घुस गए। बहुत ठंड थी यहाँ पर।

सुबह 9 बजे तक सोते रहे। तब तक गुड्डु (शरद सरोरा) भी आ चुका था। साथ हमने चाय पी और तैयार होकर मरवाही ब्लाक में स्थित सोनकुन्ड की ओर चल पड़े। सोनकुंड मैं पहले भी गया हूँ। लेकिन इसके एतिहासिक महत्व पर कभी ध्यान नहीं दिया। यहां शोणभद्र और नर्मदा का मंदिर है। एक जल का कुंड और बाबा जी का धूना भी है। यहां एक बाबा जी निवास करते हैं और यहां मेला भी भरता है। हम सोनकुंड पंहुचे यहां हमें कुछ मित्रों से मिलना था। वे भी पहुंच चुके थे। चंद्रभान, शनिराम, फ़ूलचंद इत्यादि। तभी गुड्डु को एक पेड़ पर अमरुद दिख गए। वह उसे तोड़ने का प्रयास करने लगा। एक बाबा जी वहां पर थे उन्होने गुड्डु को और भी पेड़ बताए और कहा कि वहां से तोड़ लो। वे छोटे पेड़ हैं अमरुद हाथ आ ही जाएंगे।

मैने बाबा जी से इस स्थान के महत्व के विषय में चर्चा की तो उन्होने बताया कि यह स्थान मानस तीर्थ शोण भद्र का उदगम स्थल है इस स्थान को सोनकुंड कहा जाता है। इसी कुंड से उसका उदगम हुआ है। यह नदी नही उसका नर रुप नद है। मैने नदी के नर रुप में होने के विषय में ब्रह्मपुत्र (लोहित) को ही जाना था। लेकिन शोणभद्र के नद रुप होने की जानकारी पहली बार मिली। उन्होने बताया कि शोण राजा मैकल की पुत्री रेवा से विवाह करने के लिए अमरकंटक गए थे। अमकंटक के रास्ते में जोहिला नदी पड़ती है। वह रेवा की दासी रही है। खुबसूरत और चतुर होने के कारण उसने रेवा का रुप धर लिया और उसके कपड़े गहने पहन कर शोण को मोहित करके ब्याह करने के लिए चली आई।विवाह का पहला फ़ेरा ही हुआ था तभी रेवा को पता चला कि दासी जोहिला से शोण विवाह कर रहे हैं। वह विवाह स्थल पर चली आई।

रेवा ने शोण की तरफ़ क्रोधित होकर देखा, रेवा के क्रोध का सामना शोण नहीं कर सके उन्होने सिर झुका लिया। इसके घटना के बाद वह शोण से शोण भद्र कहलाने लगे। क्योंकि सिर का झुकना याने भद्र होना होता है। रेवा को भी अपनी गलती का अहसास होता है तो वह ग्लानिवश उल्टी दिशा (पश्चिम) की तरफ़ बहने लगती है। नर का मर्दन (अपमानित) करने के कारण रेवा का नाम नर्मदा पड़ा। वापस आकर शोण जी मानस कुंड से शोण भद्र के रुप में प्रवाहित होने लगे। जोहिला कुछ दूर तक प्रवाहित होकर लुप्त होकर शोण से मिल जाती हैं।शोण भारत की सबसे चौड़ा नद है। झारखंड सोनपुर और गढवा घाट पर 99 पाए का पुल 6 किलोमीटर लम्बा बना हुआ है। इस पुल पर सात मेल एक्सप्रेस एक साथ खड़ी हो सकती है।

पेन्ड्रा रोड़ से 13 किलोमीटर दूर एक गांव कारीआम है। इसका पुरातन नाम श्री गणेशपुरी कारी ग्राम है। पेन्ड्रागढी के मालगुजार लाल अमोल सिंह ने कालीग्राम मंदिर की माँ काली की मूर्ती को पेन्ड्रागढी में लाकर स्थापित कर दिया जिसके कारण उन्हे शापित होना पड़ा। उनका परिवार धीरे धीरे समाप्त होने लगा। राजा और रानी सोनकुंड में पूजा करने आते थे। तो उन्होने स्वामी एकनाथ जी को अपनी समस्या बताई। तो उन्होने कुंड एवं शिव जी का एक मंदिर बनाने को कहा। तब लाल अमोल सिह ने यहां कुंड एवं शिव का मंदिर बनाया। जिससे वे शाप मुक्त हुए।

यहां त्रिभुवन नाथ नामक शिव जी का विग्रह है जो निरंतर बढते ही जा रहा है।इसकी स्थापना स्वामी एकनाथ जी ने ही की थी। बाबा जी ने बताया कि 6 साल में शिव लिंग 6 इंच बढ चुका है। इस मंदिर की छत अस्थाई है जब शिवलिंग और अधिक बढा जाएगा तो छत हटाई जा सकती है। छत का निर्माण इसी हिसाब से किया गया है। यहाँ तरह तरह से सर्प भी हैं। बाबा जी कहते हैं कि उन्होने यहां मणिहारी सर्प भी देखा है। वह श्वेत रंग का है उनका दर्शन कभी कभी होता है। एक बड़ा नाग सर्प भी है जो आश्रम की चालिस जरीब जमीन भ्रमण करता है। राजा ने इस आश्रम को 70 एकड़ जमीन दी थी। जिस पर खेती होती है।गुरु पूजा पर्व पर यहां मेला भरता है और 20 क्विंटल धान कोठियों से निकाला जाता है। यह धान 6 वर्ष पुराना होता है। इस धान की खपत एक दिन में ही होती है। 

गुरु पूजा के अवसर पर 20 क्विंटल महुआ के लड्डु बनाए जाते हैं प्रसाद के रुप में भक्तों को वितरित करने के लिए। महुआ से दारु बनाते हुए तो देखा सुना था लेकिन महुआ के फ़ूल से लड्डु बनाए जाने की बात सुनकर कुछ उत्सुकता बढी कि यह लड्डु कैसे बनाए जाते हैं और उसका स्वाद कैसा होता है? बाबा जी ने महुआ से सिद्द करके बनाया हुआ प्रसाद खिलाया। बड़ा स्वादिष्ट था। उनसे महुआ का प्रसाद मांग कर मैं घर भी लेकर आया। एकदम चाकलेटी स्वाद लगा। इस महुआ प्रसाद  को बनाने का तरीका भी मैने बाबा जी से पूछा। उन्होने बताया कि पहले महुआ के फ़ूलों को कड़ाही में धीमी आंच पर भूना जाता है। जब फ़ूल चुटकी में लेने से फ़ुटने लगे तो उसे कूटा और पीसा जाता है। इसी तरह समान मात्रा में अलसी और तिल को भी भूना जाता है। महुआ फ़ूल,अलसी और तिल के चुर्ण को देशी घी में सिद्ध किया जाता है।

महुआ चुर्ण में काजु किसमिश बादाम इत्यादि मेवे भी डाले जाते हैं। इसमें थोड़ा सा गुड़ मिलाकर लड्डू बांध लिया जाता है। जिसे गुरु पूजा पर भक्तों को प्रसाद के रुप में दिया जाता है। यहां का धूना सैकड़ो वर्षों पुराना है जिसमें अनवरत अग्नि प्रज्जवलित हो रही है। धुने को शीश नवाने लोग आते हैं। बम बम भोले का चिलम प्रसाद भी यहां चलता है। चिलमची भक्त भी पहुंचते हैं। धुने पर एक भैरव (कुकुर देव) भी दिखे। ये हमेशा धुने पर ही बैठते हैं। तभी एक बिल्ली आकर मेरी गोदी में बैठ गयी। कुकुर और बिलाई दोनो साथ-साथ रह नहीं सकते। दोनो का बैर जग जाहिर है। लेकिन यहाँ दोनो एक साथ दिखाई दिए। साथ-साथ ही रहते हैं।
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रविवार, 19 जून 2011

भेड़ाघाट और धुंवाधार पर पनिहारिन से भेंट

कालबेल बजने से सुबह हूई और खटिया की चाय पहुंच गई। समय देखा तो आठ बज रहे थे। मिसिर जी याद आ गए कि जल्दी तैयार होना है। गुरुदेव खुमारी में थे,लेकिन भेड़ाघाट और धुंवाधार दर्शन के लिए तैयार होना ही था। जो प्राकृतिक सौंदर्य किताबों में पढा और चित्रों में देखा उसे प्रत्यक्ष देखने का उत्साह था। हम फ़टाफ़ट तैयार हो गए। मेरा नाश्ता करने का मन नहीं था। सिर्फ़ गोरस लिया और अवधिया जी ने नाश्ता किया विजय सतपती जी के साथ। नाश्ता करते करते मिसिर जी का फ़ोन आ गया कि वे पहुंच रहे हैं। गिरीश दादा को लेकर आते हैं। लेकिन दुश्मनो की तबियत नासाज हो गयी, गिरीश दादा को बुखार आ गया। रात ही कहा था कुछ ले लीजिए, स्वास्थ्य ठीक रहेगा। लेकिन बात न मानने की सजा भुगतनी पड़ती है। लग गयी न सर्दी,यही होता है बुजुर्गों की बात न मानने का नतीजा। ये आज कल के लड़के समझते कहां हैं किसी को?

सो मिसिर जी पहुंच गए लेकिन बवाल साहब के इंतजार में बवाल होता रहा। एक मुजरा याद आ रहा था " बड़ी देर से दर पे आखें लगी थी, हुजुर आते-आते बहुत देर कर दी"। इंतजार की घड़ियाँ खत्म हुई बवाल साहब आ गए। जबलपुरिया पान का आनंद दुकानदार के अंदाज से कई गुना बढ गया। उसने पान बना कर अपने हाथों से खिलाया। मान गए भाई मनुहार का अंदाज गजबै ही था। ऐसा कहीं देखा नहीं। मौसम सर्द हो चुका था हमने भी कंधे पर सफ़ेद कमरी डाल ली, कहीं ठंड न लग जाए। चल पड़े धुंवाधार की ओर। रास्ते में मिसिर जी की शायरी की चर्चा हुई। देश में एक से एक धांसु शायर हुए लेकिन फ़ाड़ु शायर सिर्फ़ मिसिर जी ही निकले। इनके एक एक शेर में बब्बर शेर सी ताकत होती है और दार्जलिंग जी चाय जैसी खुश्बु के साथ ताजगी। एक बानगी देखिए -- मेरे प्यार को तू झूठी तोहमत न लगा, मेरे जैसा यार तुझे जन्नत में न मिलेगा. आगे देखिए -- जब जर्द पत्ते खूब हवा देने लगे है ,जीने की दुआ..... दुश्मन देने लगे है, गम हद से गुजर कर आने लगे है, उदासी से मंजिल का पता देने लगे है. बस युं ही हंसी के ठहाके लगते रहे और कारवां बढता रहा।

पहुच गए धुंवाधार, दूर से ही उड़न खटोला दिखाई देने लगा। उड़न खटोले पर ही पार चलते हैं धुंवाधार के। हवा में लटक कर प्रकृति का नजारा देखेगें। जो कहीं नहीं देखा वो यहां हुआ, लघु शंका पर भी एक रुपए का टैक्स है। अगर रेजगारी नहीं है तो पेट पकड़े खड़े रहिए। उड़न खटोले की आने और जाने की टिकिट प्रति व्यक्ति 60 रुपए है। मिसिर जी ने टिकिट लिया और हम बैठे उड़न खटोले पर। विजय सतपती, अवधिया जी, हम, मिसिर जी, बवाल साहब उड़ लिए। उड़न खटोले से धुवांधार की  फ़ोटो ली गयी। पार उतरे जाकर, धुंवाधार के नजदीक पहुंचे, लेकिन बरगी डैम में पानी रोक दिए जाने के कारण धुंध नहीं बन रही थी। पर्यट्कों की नासमझी के कारण इस स्थान को काफ़ी नुकसान पहुंचा है। झरने के पास से ही मार्बल खोदा जा रहा है जिससे झरने के प्राकृतिक स्वरुप को नुकसान पहुंच रहा है।पानी की तेज धार ने चट्टानों को छेद कर शानदार कलाकृतियों का निर्माण किया है। यहां  आकर पता चलता है कि प्रकृति से बड़ा शिल्पकार कोई नहीं।

लौट चले अब भेड़ा घाट की ओर तभी बवाल साहब को कूंए पर पानी भरती कुछ पनिहारिने नजर आई और उन्होने ड्रायवर को गाड़ी वापस मोड़ने का हुक्म दिया। बहुत ही मनोरम दृश्य था। एक  पनिहारिन पनघट से सिर पर दोघड़ रखे आगे आ रही थी।  जब से नलके लग गए गांव में तब से ही पनघट की  रौनक खतम हो गयी। पता नहीं इसी पनघट ने कितनों को कवि शायर बनाया। कितने कवि यहां से उर्जा पाते थे। गांव की गोरी और पनघट का सीधा संबंध है। लेकिन नलकों ने पनघट को बर्बाद कर दिया। अब तो कूंए की मुंडेर पर कौआ भी नहीं बैठता। पनघट पर पहुंचते ही बवाल साहब ने “माटी की गागरिया” नामक कविता सुनाई। सही मौके पर सही चोट। फ़िर क्या कहने थे। शब्द शब्द अंतरमन तक उतर गए। हम अंतर में ही तैरते रहे।

ये कंकाल मन के साथ जुड़ा है और मन यार के साथ जुड़ा है। यार और मन का मिलन हो गया। कंकाल कहीं पीछे छूट गया। बुराईयों की जड़ कंकाल में है, मन के साथ बुराईयां भी चली आती है कंकाल की, लेकिन यार की चलनी में सब छन जाता है।कूड़ा ठिकाने लग जाता है, निर्मल मन ही वहां तक पहुंच पाता है। तभी यार से मिलन हो पाता है। बस आनंद ही आनंद पनघट से गागर में भर कर मैं चल पड़ा। कब पंचवटी आई पता ही नहीं चला। भेड़ाघाट पहुंच कर नर्मदा जी के दर्शन हुए। विशाल जल राशि नर्मदा का बहता हुआ पानी, बस एक ही आवाज निकली नर्मदे हर, नर्मदे हर।

बवाल भाई ने नाव तय की 400 रुपए में। मिसिर जी को कल से बुखार था। बवाल भाई दिल पर हाथ रखे बैठे थे, दिल की बीमारी जो है, दिल लगा बैठे हैं उस यार से। बस रुहानी अंदाज में ही गाते हैं। हमारे कहने पर चल पड़े भेड़ाघाट में नर्मदा जी की सैर में। सैर नहीं, मां नर्मदा की गोद में किलोल करने। नाव चलते जाती है, संगमरमर का अद्भुत सौंदर्य सामने आता है, मल्लाह कहता जाता है और हम सुनते जाते हैं। एक जगह पहुंच कर बोला- “यह मगरमच्छ की खोह है। एक फ़ैमिली रहती है, हम दो हमारे दो, दो बड़े दो बच्चे, देखना है किसी को? तो एक मित्र ने कहा देखना है। तो वह बोला – “ एक को फ़ेंक दो बाकी को दिख जाएगा। हा हा हा” कितना उम्दा तरीका बताया मगरमच्छ देखने का।

 
एक जोड़ी चप्पु चल रहे हैं नाव आगे बढती जा रही है। मैं सोचता हूं कि अगर किनारे बैठा रहता तो इस अद्भूत मरमरी सौंदर्य के दर्शन नहीं कर पाता। ईश्वर ने आंखें सौंदर्य देखने के लिए दी हैं और इसे देखने के लिए गहरे ही उतरना पड़ता है। एक स्थान ऐसा आता है कि जहाँ पहुंचते ही लगता है कि अब यहीं रम लिया जाए। इस स्थान पर भगवान दत्तात्रेय की साधना स्थली एक खोह के रुप में है। यह वह स्थान हैं जहां पुण्यात्माओं ने साधना करके उपस्थान को पा लिया। नि: संदेह समाधि लग जाती होगी। अगर कोई जुता जुताया खेत हो तो उसमें भरपूर फ़सल होने की संभावना रहती है। रास्ते में एक भूल भूलैया के बाद हम बंदर कूदनी तक पहुंचते हैं। यहां पर दोनो पहाड़िया आपस में मिली हूई इतनी नजदीक है कि नर्मदा के आर पार बंदर कूदा करते थे। यहां वापस मुड़ गए, एक स्थान पर मोक्ष बिंदु है, जहां से लोग जान देने के लिए नर्मदा में छलांग लगा देते हैं। पुर्णिमा की चांदनी में संगमरमर की चमक वैसे भी 600 फ़िट पानी में कूदने के लिए मानव मन को आन्दोलित करती होगी है।

यहां पर कई फ़िल्मों की शु्टिंग भी हुई है, जिसमें “जिस देश में गंगा बहती है” बस अब एक गीत सुनने की इच्छा हुई, बवाल भाई ने गाया, “ मेरा नाम राजु घराना अनाम, बहती है नर्मदा जहाँ मेरा धाम।“ संगमरमरी वादियों ने भी सुर में सुर मिलाया। खूब मेला जमा माँ नर्मदा की गोद में। अद्भुत और बहुत ही अद्भुत इसके आगे आकर शब्द सामर्थ्य खो जाता है। बस अपलक निहारता रहा सौंदर्य को। प्रकृति ने संगमरमर पर कई तरह ही अद्भुत शिल्पकारी दिखाई है, कहीं कार, कहीं कमल, कही तपस्यारत योगी, कहीं भालु, कहीं ब्रह्मा विष्णु महेश दिखाई देते हैं। आप जो भी ढुंढना चाहे मिल जाएगा। भाई बवाल के गीत वादियों में गुंज रहे हैं साथ ही मेरे कानों में भी। वापसी पर खाने का समय हो चुका था।

सुबह मैने गोरस ही लिया था इसलिए पेट में चूहे कूदने लगे, इसलिए हम गक्कड़ भर्ता खाने ग्वारी घाट पर चल पड़े, बवाल साहब साथ थे इसलिए लाल साहेब का फ़ोन नहीं आया। ग्वारी घाट में अग्रवाल होटल में जमकर गक्कड़ भर्ता खाए, भूख भी जोरों की लगी थी। कलाकंद भी लिया। भर्ता की सौंधी सौंधी खुश्बु अभी तक साथ है। यहां से होटल सुर्या आ गए, गक्कड़ों ने असर दिखाना शुरु किया, आलस छाने लगा। मिसिर का फ़ोन आया कि वे कैमरा कहीं भूल आए हैं। हम तो उनकी फ़ोटुओं के भरोसे ही थे। हमने ग्वारी घाट होटल में भूल आने का कयास लगाया। जो कि सही था, लेकिन लगता है होटल वाले ने दबा दिया। मिसिर जी का नुकसान हो गया। मिसिर जी कैमरा ढूंढते रहे।
5 बजे दीपक की गाड़ी आ गयी, अवधिया जी बाटलियाँ खाने की जुगत में लग गये।
हम दीपक के साथ 1904 में स्थापित गन कैरिज फ़ैक्टरी देखने चले गए। पास में ही हनुमान जी का मंदिर है विशाल प्रांगण में। महाबली के दर्शन किए, इनके बिना तो हमारा काम ही नहीं चलता। एक अर्जी लगाते ही अच्छे-अच्छों को सुधार देते हैं। यहां से दन्डवत कर, स्टेशन चौराहे पर सांई मंदिर में गए। इस मंदिर को एक जोसेफ़ एन्थोनी नामक इसाई ने बनवाया है उसका नाम पत्थर पर खुदा है। यह देखना अच्छा लगा। हमारी ट्रेन रायपुर के लिए साढे नौ बजे थी। भोजन के पश्चात दीपक ने स्टेशन छोड़ दिया, वहां अवधिया जी मिल गए। ट्रेन लेट आई। ठंड भी बढ गयी थी। टीचर्स की गर्मी भी काम नहीं आ रही थी। कांगड़ी होती तो कुछ ठंड का मुकाबला भी करती। ट्रेन चल पड़ी अंधेरे को चीरते हुए गंतव्य की ओर…………सलाम नमस्ते।
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गुरुवार, 16 जून 2011

जाबालिपुरम यात्रा-1

अथ राष्ट्रीय ब्लागर कार्यशाला जबलपुर कथा:-- जाबाला की नगरी जबलपुर जहां नित्य ही नर्मदे हर का उद्घोष होता है वहां ब्लागिंग पर राष्ट्रीय कार्यशाला के आयोजन का संदेश मुझे समीर दादा और गिरीश दादा से प्राप्त हुआ। उस समय मैं अत्यावश्यक कार्य उत्तर भारत से दक्षिण भारत की यात्रा पर था। मैने वचन दिया कि किसी भी हालत में जिन्दा या मुर्दा कार्यशाला में शामिल होने के लिए समय पर पहुंच जाऊंगा। 29 तारीख की रात 15 दिनों की लगातार यात्रा के बाद घर पहुंचा और 30 तारीख की रात को अवधिया जी को साथ लेकर अमरकंटक एक्सप्रेस से जबलपुर रवाना हो गया।

बिलासपुर स्टेशन में अरविंद झा जी तैनात थे, वे अपनी नयी कृति "माँ ने कहा था" कि कुछ प्रतियां लेकर उपस्थित थे। इनकी इच्छा तो जबलपुर के कार्यक्रम में उपस्थित होने की तो बहुत थी पर विभागीय व्यस्तता की वजह से नहीं जा पा रहे थे। अवधिया जी तो रात होते ही सोम के नाथ हो गए और हम धान के देश में जाड़े से ठिठुरते रहे। अरविंद के आने से सर्दी में कुछ गर्मी का अहसास हुआ। इनके साथ शंकर पांडे भी थे। गाड़ी ने सीटी बजाई और बिलासपुर से अब हम जबलपुर रवाना हो चुके थे। रायपुर की अपेक्षा जबलपुर में कुछ जाड़े का असर होने लगा था यह रास्ते में महसूस हुआ। हमारी ट्रेन एक घंटा विलंब से जबलपुर पहुंची। 

पूर्व में समाचार मिल चुका था कि हमें होटल सुर्या के कमरा नम्बर 120 में बुक होना है। भोर में ही ऑटो से होटल पहुंचे। कुछ देर के विश्राम के पश्चात स्नानादि से निवृत होकर मेजबानों का इंतजार करने लगे।थोड़ी देर के बाद गिरीश भाई का फ़ोन आया और वे गुनगुनाए "ठाड़े रहियो ओ बांके यार"। ओ छोरे तेरे क्या कहने? मजा आ गया, अवधिया जी ने उठकर आईना देखा, हमने भी सुर मिलाया। शायद गिरीश दादा ने मजाक किया हो। पता चला गया कि बांकपन तो अभी भी बाकी है। 

दोपहर को गिरीश दादा सशरीर उपस्थित हो गए और अवधिया जी के साथ गहन विचार विमर्श में लीन हो गए। दोपहर का भोजन हमने साथ में लिया। शाम 5 बजे जबलपुर बी एस एन एल रीजन (सी जी एम) मुख्य महाप्रबंधक जमुना प्रसाद जी ने अपना रथ भेज दिया हमारे लाने। हम उनसे मिलने चल पड़े। कई महीनों के पश्चात आमने-सामने की मुलाकातों ने कई यादें ताजा कर दी। एक घंटे के पश्चात कार्यशाला प्रारंभ होने वाली थी। जमुना प्रसाद जी स्वयं हमें होटल तक छोड़ कर गए। उनकी सहृदयता के हम आभारी हैं।

तभी दीपक (डी पी ओ) रेल्वे जबलपुर का भी फ़ोन आ गया कि आगामी शाम उनके घर पर ही रहना है। मैने अगले दिन दीपक के घर पहुंचने का वादा किया। हैदराबादी विजय सतपती भी पहुंच चुके थे। फ़िर धीरे धीरे सभी आ गए। कार्यशाला प्रारंभ हूई। जिसकी अधिकारिक रपट मिस फ़िट पर लग चुकी है।  कार्यशाला की समाप्ति के पश्चात कमरा नम्बर 120 में लाल और बवाल सहित कुछ मित्रों के साथ हमने लाल की गजल और बवाल की गायकी का रसपान किया। नि:संदेह बवाल काफ़ी अच्छा गाते हैं, हारमोनियम पहले से ही तैयार था। बस अब सुरों की महफ़िल जम गयी। अवधिया जी को गुजरा जमाना याद आ गया, आईना जो देखे थे। उन्होने इतने पुराने गीतों की फ़रमाईश कर दी कि जो हम बरसों से भूल बैठे थे। लेकिन बवाल साहब के भी क्या कहने उन्होने निराश नहीं किया और अवधिया जी को वह गीत सुना ही दिया। मैं तो उसके बोल भी भूल गया हूँ।

कार्य शाला में अविनाश जी और खुशदीप भाई भी फ़ोन के माध्यम से उपस्थित थे,विजय सतपती भी पुराने गीत अच्छे से गुनगुना लेते हैं। कुछ गीतों की याद ये भी करते रहे। रात 2 बजे तक शमा जलते रही और बवाल होते रहा। लाल भी मजे से सुनते रहे। हम इनका रचना पाठ सुनने से वंचित रह गए। जब ये रायपुर पहुंचेगे तो छोड़ेंगे नहीं सुन कर ही मानेंगे। रात महेन्द्र मिसिर जी ने बता ही दिया था कि सुबह धुंवाधार जल प्रपात एवं भेड़ाघाट जाना है एवं चेताया भी था कि सुबह 9 बजे तैयार हो जाना है। अब सभी ने गले लग कर विदा ली और हम भी निद्रा रानी के आगोश में चले गए।

जारी है............

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