सोमवार, 23 अप्रैल 2012

झूलती मीनार और अलबेला खत्री की डुबकी

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अगली सुबह अलबेला खत्री जी से बात हुई तो उन्होने बताया कि वे एक दिन पहले अहमदाबाद में ही थे। फ़िर उन्होने कहा कि अगले दिन मैं सुबह की गाड़ी से अहमदाबाद आ रहा हूँ। वहीं मुलाकात हो जाएगी। मैने कहा कि अहमबाद स्टेशन पर आपको गाड़ी तैयार मिलेगी। मुझे फ़ोन कर देना, ड्रायवर आपको हमारे ठिकाने पर पहुंचा देगा। मेरी यह चर्चा अलबेला भाई से लोथल से लौटते वक्त हो रही थी। सुबह जब हम ऑफ़िस में पहुचे और उन्हे फ़ोन लगाया तो पता चला कि उनकी गाड़ी छुट गयी। उन्होने कहा कि जब शाम को आप सूरत पहुंचेगें तो मिलते हैं। चलो कोई बात नहीं यह भी खूब रही। संजय बेगानी जी को वापसी की सूचना देने के लिए फ़ोन लगाया तो उनकी तबियत भी नासाज थी। सर्द गर्म और वायरल से जूझ रहे थे। उन्हे आराम करने की सलाह देते हुए मैने वापसी का समाचार दिया।

मेरे रास्ते का खाना घर से बन कर आ गया था। पोरबंदर हावड़ा एक्सप्रेस अपरान्ह 3.40 पर थी। हम दोपहर का भोजन करके स्टेशन पहुंचे। विनोद गुप्ता जी भी साथ ही थे। वहाँ पहुंचने पर पता चला कि ट्रेन रात को 10.50 पर आएगी। सुन कर झटका लगा, सात घंटे लेट थी ट्रेन। आगे कोई भरोसा भी नहीं कब आए। हावड़ा रुट की सभी गाड़ियाँ रिशेडयुल हो कर चल रही  हैं ज्ञानेश्वरी दुर्घटना के बाद। रेल्वे की वेबसाईट पर रिशेडयुल समय नहीं दिखाता। इसके कारण यात्रियों को परेशानी होती है। अगर मुझे सही समय का पता लग जाता तो अहमदाबाद पुरी से टिकिट करवाता। काहे के लिए हावड़ा वाली गाड़ी में मगजमारी करता। यह रेल्वे की सरासर धोखाधड़ी है यात्रियों के साथ। अगर पहले पता चल जाए कि ट्रेन 7-8 घंटे लेट चलेगी तो यात्री उसके हिसाब से इंतजाम करके आए। अल्पना जी का सामान मुझ तक पहुंच चुका था।

स्टेशन के पास झूलती हुई मीनार है, विनोद भाई ने कहा कि अब आ गए हैं तो वही देख लेते हैं। हम समीप में बनी झूलती मीनार देखने गए। दो मीनारें बनी हुई है। इन्हे चारों तरफ़ से घेर दिया गया है। कहते हैं कि हाथ से धक्का देने पर यह मीनारें हिलती हैं। इसलिए इन्हे झूलती हुई मीनार कहा जाता है। मीनारे गिरने का खतरा देखते हुए इन्हे घेर कर बाड़ कर दी है। आस-पास गंदगी फ़ैली हुई है। जबकि गुजरात पर्यटन के कैलेंडर में इन मीनारों की फ़ोटो भी लगी है। अगर कोई पर्यटक आएगा तो क्या गंदगी देखने आएगा। जहाँ सड़ांध उठ रही हो। हुँ छुँ अमदाबाद वाला बोर्ड शायद यही प्रदर्शित कर रहा है। आओ देखो अहमदाबाद में पर्यटक स्थलों का क्या हाल है। मीनारे देखने के बाद हम पुन: आफ़िस आ गए। अब रात को ट्रेन पकड़नी थी। तब तक नेट पर ही टाईम पास किया जाए।

शाम को विनोद भाई के साथ घर पहुंचे, फ़िर रात का भोजन करके साढे दस बजे स्टेशन रवाना हुए। रास्ते में सैंटा क्लाज की ड्रेस बिक रही थी। एक ड्रेस उदय के लिए ली। स्टेशन पहुंचने पर पता चला कि गाड़ी एक घंटे लेट और हो गयी है। इंतजार करते समय बीतता गय। सवा बारह बजे ट्रेन आई। हमने अपनी सीट संभाली और सो गए। सुबह आँख खुली तो सूरत निकल चुका था। सूरत नरेश अलबेला खत्री का कहीं पता नहीं था। न वो आए, न उनका फ़ोन आया। गजब ही कर दिया कविराज ने। कोई बात नहीं, परदेश का मामला ही ऐसा होता है। अगर कही सूरत पहुंच जाते तो वे शायद मुंबई में मिलते। वापसी की यात्रा का फ़ोन सूर्यकांत गुप्ता जी को कर दिया था। नागपुर में वे इंतजार कर रहे थे।

ट्रेन नागपुर लगभग 4 बजे पहुंची। गुप्ता जी स्टेशन पर मिल गए। अब एक से भले दो। रात और आधा दिन मैने सोकर ही काटा था। गुप्ता जी के आने से बहार आ गए। गुंजने लगे हंसी के ठहाके और ट्रेन चलने लगी। साढे सात बजे लगभग हमारी ट्रेन दुर्ग स्टेशन पहुंच गयी। गुप्ता जी विदा लेकर अपने गंतव्य की ओर बढ लिए। अब हमें रायपुर आने का इंतजार था। लगभग 8 बजे हम रायपुर पहुंचे। स्टेशन के बाहर अल्पना जी इंतजार करते मिली। उनका सामान जो लाए थे। ठंड बढ गयी थी, एक मित्र की सहायता रात घर पहुंचे। उन्होने गाड़ी भेज दी थी। इस तरह गुजरात की अधूरी यात्रा सम्पन्न हुई। होली के बाद बाकी यात्रा पुरी करनी है। कुछ देखना छूट गया, उसे पूरा करना है।
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उतेलिया पैलेस

तेलिया पैलेस का नाम सुनते ही हम तुरत-फ़ुरत उतेलिया की निकल पड़े। मैने सोचा कि राजस्थान के किलों या महलों जैसा ही कुछ होगा। उतेलिया गाँव के चौराहे पर पहुंच कर लोगों से पैलेस का रास्त पूछा। उतेलिया एक गाँव ही नजर आया। हमारे छत्तीसगढ के ग्रामीण अंचल जैसे ही कवेलू के घर और उसी तरह की बसाहट। खेती के औजार लोगों के घर के सामने रखे थे। पशु यहाँ वहाँ सड़क पर बैठे-खड़े थे। येल्लो जी पहुंच गए उतेलिया पैलेस। हमें बताया गया था कि यहाँ एक होटल है और हम पैलेस देखने के साथ दोपहर के खाने का मंसूबा लिए आ पहुंचे। देखने से लगा कि हमारे यहाँ के किसी मालगुजार का रिहायशी बाड़ा है। सामने कवेलू का ऊंचा सा बरामदा है, जिसमें कवेलू लगाने के लिए बांस का उपयोग किया है। कम ऊंचाई का लोहे का दरवाजा दिखा। बरामदे में कुछ ग्रामीण बैठे गपशप मार रहे थे।

गाड़ी की आवाज सुनकर एक बंदा बाहर निकला। मैने पूछा कि उतेलिया पैलेस यही है? उसने हाँ में जवाब देते हुए प्रश्न किया - किससे मिलना है? विनोद भाई ने कहा कि पैलेस देखना  है। बात करते हुए गेट खोल कर हम भीतर प्रवेश कर चुके थे। यह बंदा तो हमें मंगल ग्रह से उतरे एलियन जैसा ही समझ रहा था। तभी एक वृद्ध बाबा आए उन्होने हमें पैलेस के विषय में जानकारी दी। बताया कि इस पैलेस के मालिक ठाकुर अहमदाबाद में रहते हैं। यहां कभी-कभी आते हैं। इसकी मरम्मत करवा के होटल में तब्दील कर रहे हैं। वे हमें पैलेस के भीतर ले गए और सभी जगहों को दिखाया। होटल के लिए कमरे तैयार किए जा रहे हैं, ठेठ गुजराती स्टाईल में इंटिरियर का काम चल रहा है। बड़े-बड़े पीतल के हंडे सज्जा की दृष्टि से रखे हैं।

पूछने पर बाबा ने बताया कि उतेलिया स्टेट में 12 गांव आते हैं। मैने इतनी छोटी स्टेट नहीं देखी थी। हमारे छत्तीसगढ में तो 12 गाँव के मालिक को दीवान कहते हैं। अगर ऐसा ही होता तो हर 12 गाँव पर एक राजा होता। पैलेस के सिंह द्वार पर हार्स पोलो खेलने की स्टीक करीने स्टेंड में लगी थी। पैलेस के बगल में स्थित घुड़साल में दो मरियल घोड़ियाँ भी थी। अगर कोई जवान सवार ही हो गया तो घोड़ी रहेगी या वह खुद, अस्पताल जाना तय। बाबा ने बताया कि यह गुजरात की स्पेशल नस्ल कि घोड़ियाँ हैं। गजब हो गया, अब इससे भी अधिक स्पेशल नस्ल की घोड़ी मिल जाए तो वह कैसी होगी। मुझे सोचने पर मजबूर हो गया। मैं तो एक बार ही घोड़ी पर बैठने की सजा भुगत रहा हूँ, पता नहीं ठाकुर कितने बार भुगतेगें, हा हा हा।

मैने बड़े-बड़े पैलेस और किले देखे हैं, इसलिए इस पैलेस का महत्व कम करके आंक रहा हूँ। लेकिन इसका महत्व इस इलाके में कम नहीं है। उतेलिया पैलेस को देखकर किसी का एक शेर याद आ रहा है इस मौके पर - कल जिसने हजारों की किस्मतें खरीदी थी, आज उसी हवेली के दाम लगने लगे। पैलेस का मुख्य द्वार बुलंदी के साथ खड़ा है। दरवाजे पर गुजरात के सुथारों की परम्परागत कारीगरी दिखाई दे रही है। फ़र्नीचर पर भी बारीक खुदाई का काम दिखाई दिया। मुख्यद्वार पर उतेलिया राज्य का राज चिन्ह लगा हुआ है। पुरानी हवेली अभी भी शान से खड़ी है। हवेली की दो चार फ़ोटो लेकर हमने यहाँ से अहमदाबाद वापसी का विचार बनाया। अब भूख लगने लगी थी और उतेलिया पैलेस में खाने का कोई इंतजाम नहीं था। हम उतेलिया से अहमदाबाद की ओर बढ लिए।

चौराहे पर एक ढाबा नुमा रेस्टोरेंट दिखा दिया। हमने भोजन करने लिए यही गाड़ी लगाई। छाछ के साथ तन्दूर की रोटी, खीर और कोफ़्ते की सब्जी मंगाई। पहले ही इधर के ढाबों के नाम से अनुभव ठीक नहीं रहा। इसलिए थोड़ा डरते-डरते ही खाया। भोजन करके हम अहमदाबाद चल पड़े। शाम 4 बजे हम अहमदाबाद पहुंच गए। अब वापसी की टिकिट बनाने का समय हो चुका था। वैसे गुजरात तो घूमना बहुत था लेकिन मुझे आए 6 दिन हो चुके थे। अब घर जाने का मन हो गया। विनोद भाई से टिकिट बनवाने के लिए कहा और हम पहुंच गए अपने गेस्ट हाऊस में। जब उतेलिया में था तो अल्पना का फ़ोन आया कि उसका कुछ सामान अहमदाबाद में छूट गया है, अगर ले आएं तो ..........। हमने कहा ले आएगें भाई, कांई वांदो नथी। अब इंतजार था अगली सुबह का.......... आगे पढें
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मुर्दों के जीवित शहर लोथल (લોથલ) में एक दिन

लोथल का आसमानी चित्र
लोथल (લોથલ) ​का उत्खनित स्थल संग्रहालय से थोड़ी दूर पर ही है। मुख्यद्वार से प्रवेश करने पर सामने एक गोदी नुमा संरचना दिखाई दी। वहाँ से हम आगे बढ लिए, जिस बंदे से हमें मुलाकात करके इस बंदरगाह के विषय में जानना था वह नगर की बसाहट के नीचे की तरफ़ था। वहाँ पहुंचने पर देखा कि कुछ लोग घास काट रहे हैं। बरसात के समय बड़ी बड़ी घास उग आई थी। वहीं आवाज देने पर विपुल नामक बंदा टोपी लगाते  हुए आया। उसने बताया कि वह यहां का चौकीदार है, जो भी पर्यटक आते हैं उन्हे वही लोथल (લોથલ) नगरी की सैर कराता है। मकवाना के फ़ोन के बारे में पूछने पर उसने बताया कि उनकी मिस कॉल आई थी, पर यह नहीं बताया कि कोई आ रहे हैं उत्खनित स्थल पर। चलो कोई बात नहीं, भ्रमण किधर से शुरु किया जाए। उसने निचली बस्ती से यात्रा प्रारंभ करवाई। मोहन जोदरो एवं हड़प्पा में मानव सभ्यता के प्राप्त होने पर इसे सिंधु घाटी सभ्यता का नाम दिया। जब इस काल की सभ्यता के चिन्ह अन्य जगहों पर मिलने से इसे सैंधव सभ्यता कहा जाने लगा। लोथल दुनिया भर के पुराविदों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। प्राचीन सभ्यता  को देखने जिज्ञासु यहाँ आते ही रहते हैं।

लोथल की बसाहट (चित्र गुगल से साभार)
इसकी खोज 1954 में हुई थी, यह अहमदाबाद शहर से 83 किलोमीटर पर स्थित है। लोथल में उत्खनन का कार्य सन १९५५ से १९६२ के वर्षों में आर्कियोलाजिकल सर्वे ओफ इंडिया के विख्यात पुरातत्त्वविद डॉ. एस रंगनाथ राव के नेतृत्व में किया गया था। जैसा कि पाया जाता है यहाँ पर भी एक बड़ा टीला था। यह टीला खंभात की खाड़ी से 18 किलोमीटर पर स्थित है। लोथल शब्द से जैसे जाहिर होता है लोथ, लोथड़ा। मृत्यु के पश्चात शरीर लोथड़ा हो जाता है। किसी प्राकृतिक आपदा के कारण यह नगर मुर्दों के टीले में तब्दील हो गया। इसलिए स्थानीय लोग इसे लोथल के नाम से संबोधित करने लगे होगें। मोहन जोदरों  का अर्थ भी मुर्दों का टीला ही किया गया। जहाँ कभी आपदा के कारण नगर नष्ट हो जाते थे वहाँ  दुबारा नगर बसाए जाने पर मुर्दे ही मिलते थे। शायद इसीलिए इन स्थानों का नामकरण मुर्दों से संबंध रखता है।

विनोद गुप्ता जी, विपुल और गड़े मुर्दे उखाड़ने वाला
सम्पूर्ण नगर चार दीवारी से घिरा है। चार दीवारी के भीतर ही सभी संरचनाएं प्राप्त होती हैं। विपुल भाई टोपी संभालते जाते हैं और बताते जाते हैं। इधर श्मशान है, वहाँ से कंकाल मिले हैं। इधर नगर के बड़ेरे लोगों का घर है। एक बडी सी घर की संचरना की ओर इशारा करके बताते हैं। हम आगे बढते हैं तो एक कुंआ नजर आता है। नगर में पीने के जल के लिए संभवत: इसका उपयोग किया जाता होगा। नगर में गंदे पानी की निकासी के लिए नालियों की समुचित व्यवस्था नजर आ रही थी। चौड़े रास्ते हैं नगर निवेश की चुस्त दुरुस्ती दिखाई दे रही थी। यहाँ से प्राग ऐतिसाहिक काल से बहुत से मिट्टी के बर्तन मिले हैं। जब यह नगर अपने उत्कर्ष पर था तब इसके समीप से साबरमती नदी एवं भोगोवो नदी बहा करती थी। उनके जल से यहाँ निर्मित गोदी में भराव होता था तथा मालवाहक नौकाएं गोदी में आकर लगती थीं। जिनसे सामान उतार कर गोदी के सामने बने गोदामों में रखा जाता था।

निचली बस्ती की बसाहट
लोथल नगर का वर्तमान विस्तार 580X300 मीटर का है। लेकिन नगर के आकार को देख कर लगता है कि भूतकाल में यह अधिक रहा होगा। एक पूर्ण विकसित समृद्ध नगर का आकार इतना छोटा नहीं हो सकता। उत्खनन में प्राप्त जानकारी से इस बस्ती के तीन स्तरों का पता लगा। सबसे नीचे वाले स्तर में मकान जमीन से ही बनाए गए थे। लगभग 2350 ई पू  बाढ का पानी भर जाने से यह नगरी डूब गयी। पुन: बसाहट होने पर बाढ से बचाने के लिए समुचित उपाए किए गए। नगर को बाढ से बचाने के लिए चारों तरफ़ कच्ची ईंटो की दीवार बनाई गयी। चौड़ी सड़कों से छोटी गलियां भी निकलती हैं। सड़के के दोनो ओर मकानों की बसाहट है। सभी मकानों में स्नानगृह एवं जल निकालने के लिए मोरी की व्यवस्था नजर आ रही थी। 

धातु गलाने की फ़ाउंडरी
नगर के दक्षिण पूर्व में शासक का बड़ा आवास भी मिला है। जिसमें पानी निकलने के लिए बड़ी मोरियां बनी हुई हैं। आवास का प्लेट फ़ार्म भी अन्य आवासों से ऊंचाई लिए हुए है। उसके सामने ही बर्तन पकाने की बड़ी भट्ठी भी मिली है। विपुल उसे गलाई कारखाना (फ़ाउंडरी) बता रहा था। मिट्टी में धातुओं की पहचान करके उसे निकालने की विधि जानना उस समय का क्रांतिकारी अविष्कार रहा होगा। उन्होने बड़ी तकनीक विकसित करके तांबा, लोहा मिट्टी से पृथक किया होगा तदुपरांत उससे बर्तन, मूर्तियाँ, मुहर, सिक्के आदि ढाले होगें। यहाँ भी धातुओं से निर्मित सामग्री प्राप्त हुई है। जिससे जाहिर होता है कि लोथल में धातुओं से निर्मित सामग्री का उपयोग होता था।

डॉक यार्ड पर विनोद गुप्ता जी
लोथल के पूर्वी छोर पर निचले भाग में एक आयताकार संरचना में पानी भरा हुआ था। हम उसके पास पहुंचे तो विपुल ने बताया कि यहाँ पर नाव आकर रुकती थी, उससे सामान उतार कर सामने गोदाम में रखा जाता था। वैसे यह गोदी जैसी संरचना काफ़ी बड़ी है। जानकारी लेने पर पता चला कि इसकी पश्चिमी दीवार 212 मीटर, पूर्वी दीवार 209 मीटर, उत्तरी दीवार 36 मीटर और दक्षिणी दीवार 34 मीटर लंबी है। दीवारों की अधिकतम ऊंचाई 4 मीटर है। उत्तरी दीवार में 12.5 मीटर चौड़ा प्रवेशद्वार है। ज्वार-भाटे के समय इस द्वार से जलपोत भीतर घुसते थे। रेत भर जाने से जब नदी का प्रवाह बदल गया, तब पूर्वी दीवार पर 6.5 मीटर चौड़ा एक दूसरा द्वार बनाया गया। इस गोदी में पानी के घटाने एवं बढाने की व्यवस्था है। एक तरफ़ ओव्हर फ़्लो बनाया गया है। जो पूर्व से पश्चिम की ओर छोटी नहर से जाकर फ़िर नदी में मिल जाता है। 

नगर क्षेत्र में विनोद गुप्ता जी एवं कुशवाहा जी
संग्रहालय में देखने से पता चलता है कि यहाँ अनेक मुद्राएं प्राप्त हुई, इन मुद्राओं और मुहरों का ऐतिहासिक महत्व है। ये पत्थर, पकी हुई मिट्टी अथवा तांबे की हैं। बहुत सी मुद्राएं चौरस आकार की हैं, लगभग 2.5 से 2.5 सेंटीमीटर की। इनके एक ओर बैल, हाथी, बाघ आदि कोई पशु का चित्र बना है और दूसरी ओर कुछ अक्षर कुरेदे गए हैं। एक मुद्रा में तीन-चार पशु दिखाई देते हैं। बहुत-सी आयताकार मुद्राएं भी मिली हैं। इनमें केवल लिखावट है। ये सब मुद्राएं हड़प्पा-मोहेंजोदड़ो से मिली मुद्राओं जैसी ही हैं। इन मुद्राओं पर अंकित अक्षरों को अब तक पढ़ा नहीं जा सका है। बाजार क्षेत्र में कई सार्वजनिक स्नानागार बने हैं तथा इस इलाके में एक कुंआ भी है। साथ पीने के पानी को छानने का एक यंत्र भी बना देखा। जिसमें दो घड़े लगे हुए हैं। उपर के घड़े में पानी डालने से नीचे के घड़े में स्वच्छ पीने का पानी उपलब्ध हो जाता था। लोथल से प्राप्त होने वाला मछली पकड़ने कांटा ठीक वैसा ही है जैसा आज भी प्रचलन में है।

प्राचीन कुंए की बनावट पर गंभीर मशविरा
जब हम श्मशान की ओर जाना चाहते हैं तो विपुल कहता है कि उधर जाने का रास्ता साफ़ नहीं है। यहाँ से जो भी सामग्री मिली है, वह सब संग्रहालय में रखी है। हमने संग्रहालय से जो भी किताबें खरीदी उससे हमें जानकारी लेने में सहायता हुई। लगभग 2 घंटे लोथल बंदरगाह के उत्खनित स्थल पर बिताने के पश्चात हम वापस संग्रहालय की तरफ़ पहुंचे। वहाँ पहुंच कर आस-पास मौजूद अन्य स्थलों के विषय में जानकारी ली तो पता चला कि समीप ही लगभग 8 किलोमीटर उतेलिया पैलेस है। वहाँ पर खाने की व्यवस्था भी हो जाएगी। उतेलिया पैलेस के रास्ते में खाली जमीन पर हमें नमक जमा नजर आता है। यह स्थान गुजरात के नक्शे में समुद्र के किनारे है। अगर गुजरात के मैप मे देखे तो हमें एक पतली सी धार दिखाई देती है। यह समुद्र इस धारा के रुप में लोथल के समीप पहुंच जाता है। हमें उतेलीया पैलेस देखने की प्रबल इच्छा हो रही थी। लोथल देखने की बरसों की इच्छा पूरी कर हम उतेलिया पैलेस की ओर बढ रहे थे …………आगे पढें
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लोथल (લોથલ) : हड़प्पा कालीन नगर -- भाग 1

लोथल के प्रवेश द्वार पर विनोद गुप्ता जी और लेखक
प्राथमिक पाठशाला में पढते थे तो एक पाठ सिंधुघाटी की सभ्यता पर था। पाठ के आलेख में मोहन जोदड़ो एवं हड़प्पा, से प्राप्त खिलौने में चक्के वाली चिड़िया, मुहर और पुरुष का रेखा चित्र भी था। साथ ही उस समय के लोगों के रहन-सहन, नगर विन्यास के विषय में भी बताया गया। लोथल (લોથલ) का जिक्र भी हड़प्पा कालीन सभ्यता के साथ ही होता है, तब से मेरा मन इन स्थानों को देखने का था। मोहन जोदरो तो पाकिस्तान में चला गया। लोथल  (લોથલ) भारत में मिला। आज समय आ गया था प्राचीन इतिहास से रुबरु होने का। सुबह से ही मन में उत्साह था। जाने को तैयार हो चुका था। पराठे और छाछ का प्रात:राश ले कर चल पड़े। विनोद गुप्ता जी को घर से लिए और साथ ही कुशवाहा जी भी थे। लगभग साढे नौ बजे लोथल के लिए चल पड़े। किसी भी पुरास्थल की जानकारी के लिए वहाँ पर उपस्थित व्यक्ति ही आपकी सहायता कर सकता है, अन्यथा सभी स्थल एक जैसे ही हैं। हम डेढ घंटे में लोथल के गेट तक पहुंच चुके थे।

चिरचिरा (अपामार्ग)
जनसुविधा के लिए रुकने पर घास में एक पौधा दिखाई दिया। इसे हमारे यहाँ स्थानीय भाषा में "चिरचिरा" और आयुर्वेद की भाषा में "अपामार्ग" कहते हैं। यह पौधा बड़े काम का है, अब इस पर नजर पड़ गयी तो चर्चा करते चलें। इस पौधे के कांटो वाले फ़ल को कूटने के बाद कोदो के दाने जैसे दाने निकलते हैं। इन 50 ग्राम दानों की खीर बनाकर खाने के बाद सप्ताह भर तक भूख प्यास नहीं लगती, शौच और लघु शंका भी नहीं होती। इसका प्रयोग हठयोगी करते हैं या नवरात्र पर शरीर पर नौ दिन तक जंवारा उगाने वाले भक्त भी। कहते हैं कि इसकी जड़ को किसी प्रसूता स्त्री की कमर में प्रसव के वक्त बांध दिया जाए तो प्रसव बिना किसी दर्द के निर्विघ्न हो जाता है। प्रसवोपरांत इस जड़ को तुरंत ही खोलना पड़ना है, अन्यथा नुकसान होने की भी आशंका रहती है, इसलिए इसका उपयोग किसी कुशल वैद्य की देख रेख में ही होना चाहिए। वरना लेने के देने भी पड़ सकते हैं। कुछ और भी जड़ी-बूटियाँ दिखाई दी पर हमें तो लोथल का स्थल देखना था, इसलिए बोर्ड के पास से पैदल ही आगे बढ लिए।

संग्रहालय की वर्तमान स्थिति (नो साईन बोर्ड)
इस स्थान के इर्द - गिर्द एक "रसोड़ा" (टीन शेड की रसोई) भी बना हुआ है। पर्यटक इस स्थान पर अपना खाना बनाने का सामान साथ लाते हैं। यहाँ भ्रमण करने के बाद पिकनिक मनाकर चले जाते हैं। हम सामने दिख रही एक ईमारत की बाउंड्री तक पहुंचे तो वहां के गेट पर लिखा था "वाहनो का प्रवेश वर्जित है"। हमने वाहन बाहर ही लगा लिया। भीतर जाने पर पता चला कि यह पुरातत्व सर्वेक्षण का संग्रहालय है। इस ईमारत पर कहीं पर भी संग्रहालय होने का चिन्ह नहीं लगा है। कोई साईन बोर्ड नहीं, वहां मिले लोगों से पूछने पर उन्होने बताया कि यह संग्रहालय है। संग्रहालय के भीतर पहुंचने पर कुछ लोग बैठे दिखे, सामने टीवी पर लोथल की डाक्युमेंट्री फ़िल्म का प्रदर्शन हो रहा था। उनसे पूछने पर पता चला कि यह फ़िल्म सिर्फ़ अग्रेंजी और गुजराती में ही उपलब्ध है, अब हिन्दी भाषा गुजरातियों के लिए विदेशी भाषा हो गयी है तो हिन्दी में अब आगे मिलना संभव नहीं है। वहाँ पर 4 लोगों का स्टाफ़ दिखाई दिया। एक मकवाना जी थे उन्होने हमें संग्रहालय की सैर करवाई। 

ए एस आई कर्मचारी मकवाना एवं गुप्ता जी
लोथल (લોથલ) से उत्खनन में प्राप्त वस्तुएं अद्भुत हैं, एक हिसाब से देखा जाए तो यह समृद्ध संग्रहालय है। इस संग्रहालय में बांयी तरफ़ उत्खनन से प्राप्त माला के मोती, टेराकोटा के गहने, मुद्रा, मुहर, सीप,  तांबे और कांसे के औजार एवं वस्तुएं, हाथी दांत की बनी वस्तुएं एवं मिट्टी के बर्तन प्रदर्शित हैं तथा दूसरी तरफ़ जानवरों एवं मनुष्यों की छोटी मुर्तियाँ, चित्रित मिट्टी के बर्तन, तोलने का बांट, तथा कब्रिस्तान से प्राप्त मानव कंकाल की प्रतिकृति भी रखी हुई है। मकवाना ने बताया कि उत्खनन से प्राप्त लगभग 5 हजार वस्तुओं में से संग्रहालय में 800 वस्तुएं प्रदर्शित की गयी है। एक मृदा भांड पर मैने प्यासे कौवे द्वारा मटकी में कंकर डालते हुए अंकन देखा अर्थात प्यासे कौंवे की कहानी भी बहुत पुरानी है। पंचतंत्र की कथाओं में वर्णित चालाक लोमड़ी की कहानी भी रेखांकन द्वारा प्रदर्शित की गयी है। मृतकों के साथ रखे जाने वाला सामान भी संग्रहालय में रखा है। 

प्राचीन खेल, आप प्रांत के हिसाब से नाम देने में स्वतंत्र हैं
हाथी दांत की कलम, तीर के फ़लक, सोने के हार, एव एक स्थान पर मिले मनके इतने बारीक हैं कि उन्हे देखने के लिए पावर कांच का उपयोग किया गया है। सूई से लेकर चौपड़ तक यहां मौजूद है, बचपन में हम तीरी-पासा नामक खेल खेला करते थे, फ़र्श पर लाईन खींच कर। कौड़ी नहीं मिलती थी तो ईमली के बीज को फ़ोड़ कर दो हिस्सों में करने के बाद उसके पाँच हिस्से लेकर पासे में उपयोग करते थे। एक पट पासे का मान 5 होता था और चित पासे का मान एक। फ़िर इसी मान से सभी अपनी गोटियाँ चलते थे। लोथल एक व्यापारिक नगर होने के कारण यहाँ समय बिताने के लिए लोग इस खेल का ही प्रयोग करते थे। यहाँ मिले टेराकोटा के चौपड़ से पता चलता है। तब से लेकर आज तक यह खेल जारी है। इससे जाहिर होता है कि तीरी-पासा या चौपड़ का खेल बहुत प्राचीन है। आज हमारे यहाँ ग्रामीण अंचलों में यह खेल खेला जाता है। पशु चराने वाले चरवाहे कहीं पर भी लाईन खींच कर जंगल में उपलब्ध सामग्री से इस खेल को खेलकर मनोरंजन कर लेते हैं।

उत्खनन में प्राप्त कंकालों की प्रतिकृति
संग्रहालय मध्य में लोथल के उत्खनित स्थल का एक माडल बना कर रखा गया है। हम माडल के द्वारा उत्खनित नगर की जानकारी ले सकते हैं। साथ ही मुद्राओ एवं मुहरों का प्रदर्शन किया गया है। सभी व्यापारियों का अपना पृथक व्यापार चिन्ह हुआ करता था। जिसे मुहर कहते थे, आज हम मुहर का प्रयोग करते हैं, किसी अधिकारी के पदनाम की मुहर की मान्यता है। अधिकारी को बदलते रहते हैं पर मुहर नहीं बदलती। उसी तरह व्यापारी अपने माल और हुंडी इत्यादि पर मुहर का प्रयोग करते थे। एक साबुत मृदा पात्र दिखाई दिया जिसमें बहुत सारे छेद बने हुए थे। यह पात्र रोशनी के लिए उपयोग में लाया जाता रहा होगा। पात्र के भीतर दिया रखने पर पुष्कल प्रकाश प्राप्त हो सकता है। कुछ कुल्हाड़ियाँ भी दिखाई दीं। उतखनन से प्राप्त पुरावस्तुओं से जाहिर होता है कि जब इस नगर का विनाश हुआ होगा तब यहाँ सभ्यता अपनी चरम सीमा पर होगी।

मुद्राएं एवं मुद्रांक (मुहर)
सीप का दिकसूचक यंत्र भी यहाँ से उत्खनन में प्राप्त हुआ है। मानव के लिए भ्रमण के दौरान दिशा जानना भी आवश्यक था। अगर सूरज दिखाई नहीं दे रहा है दिशाओं का भान नहीं होता। ऐसी दशा में दिशाओं को जानने के लिए चुम्बक की आवश्यकता होती है। चुम्बक ही उत्तर-दक्षिण दिशाएं बताता है। इसके लिए हम लोहे की सुई का प्रयोग कर सकते हैं। पीपल जैसे वृक्ष का हल्का पत्ता, थाली या कटोरे जैसे बर्तन एवं एक लोहे की सुई। हम सुई को ऊनी कपड़े या सिर के बालों से रगड़ कर आवेशित करने के पश्चात पत्ते पर रख कर पानी में डाल दें तो वह हमें उत्तर दक्षिण दिशा बताता है। प्राचीन काल में दिशा जानने के लिए इसी तरह के यंत्रों का उपयोग किया जाता था और आवश्यकता पड़ने पर आज भी किया जा सकता है। इन सब पुरावस्तुओं के प्राप्त होने से ज्ञात होता है कि हमारी सभ्यता पृथ्वी की अन्य सभ्यताओं से पीछे नहीं थी। वरन आगे ही चल रही थी।

उत्खनन स्थल का माडल
लोथल के उत्खनन स्थल पर जानकारी प्राप्त करने के लिए किसी जानकार आदमी की जरुरत थी। मैने प्रवीण मिश्रा जी को फ़ोन लगाया तो वे दिल्ली में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के 150 वर्ष पूर्ण होने पर आयोजित कार्यक्रम में थे। कुछ देर बाद उन्होने फ़ोन लगा कर जानकारी दी। लेकिन जिनके बारे में जानकारी दी वे वहाँ उपस्थित नही थे। हमारे आग्रह करने पर मकवाना ने कहा कि विकुल नाम का एक लड़का वहां पर काम कर रहा है मैं उसे फ़ोन लगा देता हूँ। विनोद भाई चाय पीने की इच्छा जाहिर कर रहे थे पर संग्रहालय में चाय का कोई इंतजाम नहीं था। न ही आस पास कोई चाय की दूकान। पूछने पर बताया कि चाय की दूकान यहाँ से 4 किलोमीटर दूरी पर मिलेगी। हमने चाय पीने के ईरादे को त्याग देना ही उचित समझा, पर्यटक एवं पुरातत्व प्रेमियों को सलाह है कि यहाँ चाय नाश्ता इत्यादि साथ लाएं। संग्रहालय में लोथल से संबंधित जानकारी देने वाली कुछ किताबें उपलब्ध हैं जो क्रय की जा सकती है। विनोद भाई ने दो-तीन किताबें ली और उत्खनित स्थल की ओर चल पड़े।   ----  आगे पढें
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साबरमती, चरखा और ट्रैफ़िक

सुबह उठा, तो देखा कबूतर अकेला था। प्रेम चोपड़ा के डर से कबूतरी नहीं आई। आज नामदेव जी की वापसी थी, वापसी की टिकिट हम दोनों की साथ ही थी पर मुझे तो अभी और घुमना था। सुबह कार्यक्रम बना कि साबरमती आश्रम चला जाए फ़िर वहीं से नामदेव जी को भोजन करवा कर ट्रेनारुढ कर दिया जाए। बचपन में गीत सूना था "साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल, दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल।" तब से साबरमती का नाम बस सुना था देखा नहीं था। अहमदाबाद पहुंच कर साबरमती के पार पहुंच कर आश्रम भी देखना था। नाश्ता करके हमने नामदेव जी का बैग गाड़ी में लाद लिया और साबरमती आश्रम पहुंच गए। आश्रम में बच्चों की पेंटिग प्रतियोगिता चल रही थी। भीड़ भाड़ ठीक ही थी। साबरमती का किनारे प्रवेश द्वार के बाद प्रदर्शनी है। जहाँ गाधीं जी से संबंधित सामान रखे हैं। पुस्तकालय के साथ ही पुस्तक विक्रय केन्द्र भी है।

हमें प्रदर्शनी देखने में ही एक घंटा लग गया। काफ़ी बड़ी जगह है। कुछ चित्र लिए प्रदर्शनी में। पुस्तक विक्रय केन्द्र से कुछ पुस्तके भी खरीदी। उसके बाद साबरमती के किनारे पर जाकर चित्र लिए। साबरमती अब बदल गयी है। गांधी जी के समय में एवं वर्तमान में काफ़ी अंतर आ गया है। चारों तरफ़ आश्रम को मकानों ने घेर रखा है। नदी भी प्रदूषित हो रही है। नदी के साथ ही एक कारीडोर भी बन रहा है। आगे चल कर हम गांधी जी के आवास तक पहुंचते हैं। वहाँ गाधी जी का चरखा रखा है। भीतर प्रवेश करने पर कस्तुरबा का कमरा दिखाई दिया। वहां चूना पोताई हो रही थी। गांधी जी के जीवन परिचय एक बोर्ड लिखा हुआ है। उनके जीवन की समस्त घटनाएं तिथिवार सूचना फ़लक पर दर्ज हैं। उनके घर में रखे चरखे को हमने भी चलाया। कुछ महीनों पहले अमिताभ बच्चन ने भी चलाया था। हम क्यों कसर छोड़े, जब साबरमती पहुंच ही गए तो चरखा भी चलाया। पहले तकली से स्कूलों में रुई काती जाती थी। जिसकी कताई महीन होती थी उसे ईनाम भी मिलता था।

चरखा देख कर फ़्लेशबैक में चला गया। वर्तमान में मूल्य आधारित शिक्षा पद्धति गायब होती जा रही है। गुरुजी जब से सर हुए हैं तब से शिष्य भी सरसरा कर निकल जाते हैं। हमारे कालेज के समय के एक गुरुजी हमें यदा-कदा मिलते रहते हैं। कॉलेज के बाद उनसे मेरी मुलाकात लगभग 27 साल बाद हुई होगी। दोहरे चरित्र का वह व्यक्ति मुझे पसंद ही नहीं था  और आज भी पसंद नहीं है,  गुरु तो वह होता है जो शिष्य प्रतिभा को मांज कर उसे किसी काबिल बनाता है। वर्तमान में सिर्फ़ कलदार ही चाहिए। चाहे शिष्य चोरी करके लाए या डकैती डाल कर। कुछ तथाकथित लोगों का एक मात्र उद्देश्य बड़ी कुर्सी की चापलुसी करना और छोटी कुर्सी को दबाना एवं प्रताड़ित करना। मूल्य सब गायब हो गए।

आज से 40 साल पहले जो शिक्षा गुरुजी देते थे वह अभी तक मानस पटल पर स्थाई है। जो हमने उस समय पढा वो अभी तक याद है। जब भी बड़े गुरुजी मिलते थे तो श्रद्धा से सिर चरणों में झुक जाता था। लेकिन आज मूल्य बदल चुके हैं। एक हाथ दे और एक हाथ ले। ऐसी स्थिति में श्रद्धा का जन्म लेना मुश्किल है। मैं भी कहाँ इस जमाने मे मूल्य ढूंढ रहा हूँ बेवकूफ़ी की हद हैं, शायद साबरमती आश्रम जी धरती पर आकर मुझे अनायास ही सोचने पर मजबूर होना पड़ा। न चाहते हुए भी फ़्लेशबैक में चला गया। अब आगे बढा जाए, नामदेव जी की ट्रेन का समय भी हो रहा है, उन्हे भोजन करवा कर ट्रेनारुढ करना है। हम खानपुर में दोपहर का भोजन विनोद भाई के साथ करके नामदेव जी को स्टेशन छोड़ने पहुंच जाते हैं। अहमदाबाद के टैफ़िक में गाड़ी चलाना बहुत मुश्किल है। फ़िर भी हम आधे घंटे में स्टेशन पहुंचते है तो नामदेव जी की ट्रेन प्लेट फ़ार्म पर आ चुकी थी। उन्हे ट्रेन में बैठाकर हम वापस खानपुर पहुंचते हैं। और शाम को अपने गेस्ट हाऊस में।

आज अकेला हूं गेस्ट हाऊस में, नामदेव जी घर की ओर चल पड़े हैं। टीवी देखना का मन नहीं। जिस दिन से अहमदाबाद आया हूँ उस दिन से ही इसके ट्रैफ़िक के चक्कर में फ़ंसा हुआ हूँ। मै तो सोचता था कि हमारे रायपुर के लोगों को ही टैफ़िक की सेंस नहीं है। लेकिन यहाँ आकर मेरी धारणा बदल गई। अहमदाबाद से तो लाख दर्जे अच्छा रायपुर का ट्रैफ़िक है। लोग लाल बत्ती और हरी बत्ती का मतलब समझते हैं। साईड लेना और साईड देना जानते हैं। हमारे ट्रैफ़िक पुलिस चालान बुक लेकर चौराहे पर मुस्तैद रहती है। भले ही वह फ़ालतु चालान काट दे कोई बात नहीं। अहमदाबाद में इस मामले में राम राज्य है। कोई किधर से भी आए, कहीं से भी जाए। लाल बत्ती हो या हरी, इससे कोई मतलब नहीं। चौक में चारों तरफ़ से घुस जाते हैं। सभी को जल्दी है जाने की। लेकिन जल्दी कोई नहीं पहुंच पाता। चौक में चारों तरफ़ से घुस के जाम लगा देते हैं। सिपाही खैनी चबाते देखते रहता है। जैसे भी चलो तुम्हारी मर्जी, सब छूट है।

मैट्रो की तर्ज पर यहाँ स्पीड बस सेवा चलती है। जिसकी अलग लाईन सड़क बीचों बीच बना रखी है। सिर्फ़ इसके निकलने के लिए चौराहों पर ट्रैफ़िक पुलिस तैनात है। जब यह बस चौराहे को पार करने वाली होती है, तभी चारों तरफ़ का ट्रैफ़िक बंद कर दिया जाता है। अगर कोई बीच में घुसेगा तो नमस्ते हो जाएगा। इससे दुर्घटना भी कई बार होती हैं, लोगों  की जान भी जाती हैं। रायपुर से जाकर कोई अहमदाबाद में गाड़ी चलाना चाहे तो दिन भर में पचासों बार भिड़ जाएगा। अगर कोई भिड़ भी जाता है तो एक, बे, त्रोण से आगे नहीं जाता। मामला वहीं शांत हो जाता है। दोनो आगे बढ लेते हैं। मैने इस ट्रैफ़िक में गाड़ी चलाने की सोची भी नहीं। फ़िर कभी आऊंगा तो देखेगें अहमदाबाद के भी ट्रैफ़िक में गाड़ी चला कर। तभी महाराज का फ़ोन आता है मेहसाणा से-"काली आजा महाराज, दबा दे गाड़ी इही डहर"- कहता हूँ अगर समय रहा तो जरुर आऊंगा। दाल-भात खाने। रात घनी हो चुकी, कबुतर अपने ठिकाने पर बैठा है, बोलती बंद हैं। हम भी सुबह मिलते हैं लोथल में, ............ जारी है………आगे पढें
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फ़ेसबुकिया कबूतरी की गुड मार्निंग

अहमदाबाद का सुबह का नजारा
सुबह साढे 5 बजे आँख खुली तो खिड़की से अंधेरा नजर आ रहा था। तब समझ आया कि यहाँ हमारे छत्तीसगढ की अपेक्षा दिन देर से निकलता है। खिड़की से नीचे झांक कर देखा तो स्ट्रीट लाईट जल रही थी। सुनसान सड़क शंहशाह की सवारी गुजरने का अहसास करा रही थी। अंधेरी रातों में सुनसान राहों पर................। खिड़की से झांक कर हमने फ़िर बिस्तर पकड़ लिया। 7 बजे उठे तो थोड़ा प्रकाश देखने मिला। हम भी खुश हुए कि सुबह हो गयी। केयर टेकर को चाय की घंटी मारी। नामदेव जी भी उठ गए, उन्हे ड्यूटी पर लगाया जिससे वे जल्दी स्नान ध्यान कर लें उसके बाद हम कर लेगें। हमें तो कहीं जाना नहीं था, आज दिन भर आराम का ही मुड था। थोड़ी देर में चाय आ गयी।

कबूतर और कबूतरी (दुर्लभ चित्र)
हम बिस्तर छोड कर सोफ़े पे डट गए, जैसे ही खिड़की की तरफ़ देखा तो कल वाला कबूतर एक कबूतरी पटा लाया था। चोंच लड़ा कर प्रात: कालीन फ़ेसबुकिया गुड मार्निंग कर रहा था। हमें थोड़ी ईर्ष्या हुई, काश! हम भी कबूतर होते तो लाला जी मुंडेर पर ही बैठे रहते। बने रहते लोटन कबूतर, लाला जी की दूकान भी चलते रहती और कबूतरी भी गुटरगूँ करते रहती। कौउनु फ़रक नहीं पड़ने वाला था। तभी प्रेम चोपड़ा की एन्ट्री हो जाती है, उसे देखते ही कबूतरी फ़ुर्रर्र हो गयी, कबूतर बैठा रहा वहीं छज्जे पर। कितना खौफ़  है न प्रेम चोपड़ा का? यह किरदार चराचर जगत के सभी प्राणियों में पाया जाता  है। जैसे ललाईन के छज्जे के सामने बनवारी काका। दिन हो रात खिड़की खोले खांसता ही रहता है मुआ। चलो छोड़ो सुबह सुबह क्या झमेला ले बैठे। कबूतर जाने और कबूतरी जाने, हमे क्या लेना? हूँ ...........तो।

विनोद भाई
चाय समाप्ति पर कार्यक्रम बना कि नामदेव जी जाएगें दर्जी युवक-युवती परिचय सम्मेलन में और हम जाएगें विनोद भाई के घर पर। दोनो स्नानादि से निवृत्त होकर बीएसएनएल कालोनी पहुंचे, वहाँ रिदम एवं व्योम के साथ भाभी जी से भी मुलाकात हुई। चाय लेकर नामदेव जी युवक-युवती परिचय सम्मेलन मे चल दिए। हम और विनोद भाई गजल के काफ़िया मिलाने में लगे रहे। दिन भर बीत गया। नामदेव जी के पहुंचने पर शाम को कांकरिया तालाब घूमने निकले। अल्पना ने मुझे बताया कि अहमदाबाद में घूमने की एकमात्र जगह है। कांकरिया तालाब का निर्माण किसने कराया, क्यों कराया इसकी तो जानकारी नहीं ली। कांकरिया तालाब में प्रवेश करने के लिए 10 रुपए टिकिट लगती है। विनोद भाई ने अब्दुल कलाम जी जैसे लाईन में खड़े होकर टिकिट ली। हम लाईन के बाहर खड़े रहे, जब एक लाईन में लगा है दो क्यों लगे? दो लगने से भी टिकिट तो जल्दी मिलने से रही।

किसने मारी कंकरी कांकरिया तलाव में
कांकरिया तालाब काफ़ी बड़े इलाके में बना है। रात को तालाब के सब तरफ़ झमाझम रंगीन बल्बों का प्रकाश सुंदर दिखता है। हम पैदल ही निकल लिए तालाब के चक्कर लगाने के लिए। एक ने बताया की तालाब का पुरा चक्कर लगभग 4 किलोमीटर का है। तालाब का विकास एक पिकनिक स्थल की तरह किया गया। यहाँ गैस के बैलून से लेकर, टॉय ट्रेन एवं ओपन बसे भी हैं। जो पर्यटकों को तालाब का भ्रमण कराती हैं। गैस के गुब्बारे में चढकर आप अहमदाबाद का रात का नजारा देख सकते हैं। बताते हैं कि गुब्बारा फ़ूटने से कुछ लोग नीचे गिरकर उपर भी चले गए थे। तब इसे बंद कर दिया था। लेकिन अब गुब्बारे का सफ़र पुन: चालु है। तालाब के किनारे पर हनुमान जी का एक मंदिर भी दिखाई दिया। थोड़ी ही दूर पर शास्त्री जी भी खड़े थे। एक स्थान पर हल्का फ़ुल्का नाश्ता लिया और कांकरिया तालाब का हमारा चक्कर पूरा हो चुका था।

मैया रेल खिलौना लैइहौं -नामदेव जी
10 बज रहे थे, विनोद भाई ने कहा कि अब कहीं खाना खाने चलते हैं। संकल्प नाम के होटल में गए, वहां पहुंचने पर खाने के लिए लोग लाईन लगा कर बैठे थे। गजब मामला है, हम तो मुफ़्त की पंगत में इंतजार नहीं करते, काउंटर वाले ने हमे आधे घंटे का टाईम दिया। बाहर चेयर डाल रखी थी हम वहीं गपियाते बैठ गए। आधे घंटे बाद हमारा नम्बर आया, खाने का आडर दिया स्टीवर्ड को। सबसे पहले उसने एक धमेले जैसा फ़ाफ़ड़ा लाकर रखा। कहा कि होटल की तरफ़ से स्टाटर फ़्री है। भोजन लगते ही खाने लगे, तभी एक सब्जी में से बाल निकल आया। लम्बा बाल था, छोटा-मोटा होता तो पता ही नहीं चलता। मैनेजर को बुलाया, उसने माफ़ी मांगी लेकिन अब मुड किरकिरा हो चुका था।

होटल संकल्प - ढूंढो अन्य विकल्प
विनोद भाई पहले बता रहे थे इस रेस्टोरेंट की अहमदाबाद में चैन है। हमारी सब्जी से चैन निकलती तो कोई बात थी,  लेकिन निकला बाल और उसने मन का चैन खो दिया। आखिर में उसने आईसक्रीम दी। लेकिन बिल से सब्जी का चार्ज कम नहीं किया। इसलिए संकल्प की चैन के चक्कर में जाएं तो अपने रिस्क पर। यह एक ग्राहक का अनुभव है। दो बार बाहर भोजन किया, दोनो बार ही अनुभव सही नहीं रहा। इससे बढिया तो हमारे अमरू का ढाबा है, सब कूछ आँखों के सामने। भट्ठी, तवा, कड़ाही तेल, जो कुछ बन रहा है वह सामने है। आँखों के सामने बनवाओ और खाओ। एक ब्रिटिश सीरियल में और यू ट्यूब हाईजेनिक किचन के शेफ़ लोगों के विडियो देखने के बाद तो क्या मन करेगा इन हाईजैनिक फ़ुड वाले होटलों में। खाना अपने गेस्ट हाऊस के केयर टेकर का ही बढिया लगा। इसलिए अहमदाबाद जाने वाले संकल्प का विकल्प अभी से देख लें। संकल्प से सबक लेकर हम पहुंचे अपने गेस्ट हाऊस, आगे की कथा अगली पोस्ट में............आगे पढें

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अक्षरधाम मंदिर और फ़ोटो की दूकान

स्वामी नारायण संप्रदाय द्वारा संचालित कॉले
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गुजरात की राजधानी गांधी नगर में प्रवेश करने पर कीकर के पेड ही दिखाई दिए। हमारा उद्धेश्य था स्वामी नारायण सम्प्रदाय के अक्षरधाम मंदिर को देखना। हम 4 बजे मंदिर के सामने थे। मंदिर पहुंचने पर जिग्नेश ने बताया कि मंदिर के भीतर कैमरा नहीं ले जाने देते। मैने सोचा, अपना मोबाईल तो है, उसने कहा कि मोबाईल ले जाना भी मना है। आप सारा सामान यहीं कार में छोड़ दिया। एक ब्लॉगर के लिए इससे अधिक दुखदाई क्या हो सकता है? हमने मन मसोस कर अक्षरधाम में प्रवेश करना मंजूर किया। मंदिर के प्रवेश द्वार पर पाईपों से भूल-भूलैया जैसे चक्कर बना दिया है। महिलाएं सीधे ही मेटल डिटेक्टर के द्वार में प्रवेश करती हैं और पुरुषों को 7 के भी 70 फ़ेरे लगाने पड़ते हैं तब कहीं जाकर मुख्य द्वार पर परणी परणाई स्वयं की ही बीवी मिलती हैं। मेटल डिटेक्टर के पास बेल्ट अंगुठियाँ, घड़ी आदि भी उतरवा दिए। ऐसी सुरक्षा जाँच पहली बार देखी थी। अच्छा हुआ जार्ज साहब के अमेरिका दौरे के दौरान हुई जैसी खाना तलाशी नहीं हुई।
तलाशी देने के बाद हम मंदिर की ओर चले। गेट के दायीं तरफ़ पुस्तक की दुकान थी। दोपहर का खाया रोटला असर दिखाने लगा था। पानी पी पीकर बुरा हाल था। प्यास बुझती नहीं थी और पेट खाली नहीं था। मुझे खाते वक्त ही शक हो गया था, लेकिन मजबूरी थी जो मिलावटी रोटले खा लिए। मंदिर के रास्ते में आगे बढे तो बांयी तरफ़ मनोरंजन के साधन के रुप में तरह-तरह झूले लगे हुए थे। लोग झूलते हुए चिचिया रहे थे और हम पेट पकड़े। मंदिर के भीतरी प्रवेश द्वार पर भी डंडाधिकारी मौजूद थे, वे निगाहों से एक्सरे कर रहे थे। उसके आगे एक फ़ोटोग्राफ़र का स्टाल लगा हुआ था। नामदेव जी ने उससे फ़ोटो का रेट पूछा तो 8x12 की साईज का 100 रुपए बताया। हमारे यहाँ इस साईज की फ़ोटो कलर लैब में 25 रुपए में बनती है। खुले आम लूट चल रही थी। मैने मना कर दिया कि मुझे कोई शौक नहीं है इस तरह की लूटमार में फ़ोटो खिंचाने का। नामदेव साहब नहीं माने, एक फ़ोटो खिंचवा ही ली खींच तान कर। नामदेव जी ने बताया कि फ़ोटो 6 बजे देगा।
गुरुद्वारा
हम मंदिर परिसर में पहुंचे, सामने ही भगवान स्वामीनारायण की स्वर्णमंडिंत बड़ी सी प्रतिमा लगी है। उसके बाद उनके साथी शिष्यों की, जिन्होने आगे चल कर पंथ को चलाया। दूसरी मंजिल पर उनके जीवन से जुड़ी वस्तुएं रखी हैं, जिनमें बैल गाड़ी से लेकर चमड़े की थैली, बर्तन, और उनका दांत भी। उनके दांत में दर्द होने पर एक सोनार से उन्होने दांत निकलवाया था। यह दांत सोनार के परिवारवालों ने संस्थान को भेंट किया। मंदिर वास्तु एवं शिल्प का उत्कृष्ट नमूना है। इसका विशाल स्वरुप मनमोहक है। हमने मंदिर चारों तरफ़ घूम कर देखा। बाहर से काफ़ी स्कूली बच्चे घूमने के लिए आए हुए थे। इस मंदिर में भी जूते चप्पल रखने की व्यवस्था दिल्ली के लोटस टैम्पल जैसी ही है। थैलियों में जूते चप्पल डाल कर दो और टोकन लो। दर्शन करके आने पर टोकन दिखाओ, जूते चप्पल पाओ। मंदिर घूम लिए, अब 6 बजने का इंतजार करने लगे।
मंदिर परिसर में लाईट एन्ड साऊंड शो दिखाया जाता है लेजर लाईट के साथ। उसकी टिकिट 150 रुपए बताई गयी। हमारे आने से पहले ही 2 शो की टिकिट बिक चुकी थी। हम चाह कर भी यह शो नहीं देख सके। जबकि विनोद गुप्ता जी ने विशेष तौर पर इस शो को देखने की सलाह दी थी। मंदिर परिसर में ही बैठ कर फ़ोटो आने का इंतजार करने लगे। गांधी नगर में ब्लॉगर ज्योत्सना पांडे एवं उनके पतिदेव नामदेव पांडे जी रहते हैं। लखनऊ से स्थानान्तरण होने की सूचना उन्होने मुझे दी थी और गुजरात आने पर मिलने का आग्रह किया था। ज्योत्सना जी को फ़ोन लगाने पर पता चला कि वे लखनऊ में हैं और नामदेव जी फ़ोन पर चर्चा हुई तो उन्होने मुंबई में होना बताया। गांधी नगर इनसे मुलाकात टल गयी। मगर हम अभी गांधीनगर से नहीं टले थे।
जैसे-तैसे घड़ी ने 6 बजाए, हम फ़ोटो वाले के पास पहुंचे तो उसने कहा कि फ़ोटो बनकर नहीं आई है। हमने कहा कि 6 तो बज गए हैं, तो उसने पर्ची मांगी उसमें साढे 6 लिखा था। गजब हो गया यार मंदिर मे भी चालबाजी। मैने थोड़ा डांटा तो दो चार लोग और आ गए उसकी सपोर्ट के लिए। तभी मेरी नजर उसके माथे पर पड़ी तो रोली का गोल टीका उसके माथे पर दिखाई दिया। उसके समर्थन करने वाले के माथे पर भी वही टीका था। तब समझ में आया कि माथे पर रोली का गोल टीका स्वामीनारायण संप्रदाय वाले अपनी पहचान के लिए लगाते हैं। वही मैं सोच रहा था कि इनके अनुयाईयों का कोई पहचान चिन्ह क्यों नहीं दिखाई दे रहा है। अगर मुझे मालूम होता कि चालबाजी की हरकत होगी तो मैं फ़ोटो लेने का अपना जुगाड़ भी साथ ले आता। कम से कम यादगार की तौर पर इनकी फ़ोटो तो ब्लॉग पर चिपक जाती।
चालबाजी की हद तो तब हो गयी जब हम साढे 6 बजे फ़ोटो के लिए पहुंचे। तो उसने कहा कि अभी साढे 6 नहीं बजे हैं। मैने अपनी घड़ी दिखाई तो उसने अपनी घड़ी दिखाई जिसमें सवा 6 बजे थे और कहने लगा कि मैं तो अपनी घड़ी के हिसाब से चलता हूँ। अब मेरा मन हो गया था कि इसका मुंह तोड़ दूँ, लेकिन नामदेव जी ने गुस्से को शांत कराने की कोशिश की। बोले और 15 मिनट सही, जब डेढ घंटा खराब कर लिया तो थोड़ा सब्र और कर लेते हैं। सब्र की ............ अगर यही समय मिलता तो हम गांधी नगर में और भी कहीं घूम लेते। इसने तो समय की वाट लगा के धर दी। एक लाल टीकिया सज्जन दिखाई दिए। मैने सोचा कि अब इनका दिमाग चाटे बिना काम नहीं चलेगा। अन्यथा ओव्हर फ़्लो के चक्कर में कई निपट जाएगें।
उनसे मैने अक्षर धाम पर हुए आतंकवादी हमले के विषय में पूछा। तो उन्होने बताया कि तीन आतंकवादी थे और दूसरे गेट तक गोली चलाते हुए आ गए थे। फ़िर वे लायब्रेरी की छत पर चढ गए। मंदिर में मौजूद लोगों ने सारी लाईटे बंद कर दी फ़िर सुरक्षा बलों ने उन्हे लाईब्रेरी से ही मार गिराया। इस हमले में सुरक्षा बलों की जांबाजी से सैकड़ों लोगों की जान बच गयी। एक सिपाही ने शब्द भेदी गोली चलाई तो पहला आतंकवादी मरा। मेरी उन सज्जन से बात चल रही थी, साथ में उनकी सुकन्या भी थोड़ा सा सहारा दे रही थी, मेरी जानकारी में इजाफ़ा हो रहा था। उसने बताया कि आतंकवादी हमले के सभी निशान यहाँ से मिटा दिए गए हैं। मंदिर परिसर में एक बहुत बड़ी लायब्रेरी भी है, जिसमें मंदिर प्रशासन की लिखित अनुमति के पश्चात प्रवेश मिलता है।
हमारे पास समय भी नहीं था लाईब्रेरी तक जाने के लिए। अब फ़ोटो लेने वालों भीड़ लगी थी। फ़ोटोग्राफ़र की घड़ी के हिसाब से समय चल रहा था। हमारी फ़ोटो सबसे अंतिम में मिली। फ़ोटो में भी थोड़ी कारीगरी की गयी थी फ़ोटो शाप से। लेकिन मेरे पास समय नहीं था अब और रुकने का। हम फ़ोटो लेकर सीधे बाहर भागे जैसे किसी कैद से छूटे हों। वैसे बिजली के प्रकाश में मंदिर की छटा निराली थी। हमें तो एक ही लाल टीके वाले ने भुगता दिया। दोपहर के रोटले ने पेट फ़ूला दिया था। उसे 5 घंटे से झेल रहा था। एक जगह गाड़ी रोककर रोटले को बस्ती क्रिया से बाहर किया। तब थोड़ी चैन की सांस आई। हमारे पास अब समय नहीं था कि गांधी नगर और घूमा जाए। दिन भर घूम फ़िर कर थक गए थे। अब बिस्तर ही नजर आ रहा था। खाने की भूख तो मिट गयी थी।
पत्तों  में घोंसला बनाते माटरा-चापड़ा
अहमदाबाद पहुंचने पर एक जगह गोली वाला सोडा की दुकान दिख गयी। सड़क के किनारे फ़टाफ़ट सोडा निर्माण फ़ैक्टरी चल रही थी। वहीं गाड़ी किनारे लगाकर हमने सोडा पीया, तब जाकर थोड़ी तस्ल्ली हुई। मारुतिनंदन भोजन का उपसंहार यह निकला कि कभी भी काठियावाड़ी खाने में रोटला नइ खाने का, रोटली ही खाने का। नही तो मेरे जैसे भुगतना पड़ जाएगा। भले ही अपना बस्तर का चापड़ा-माटरा खा लेने का। कांई वादो नथी, फ़रि काठियावाड़ी नइ जीमने का। सोडा ने पेट हल्का किया, दो चार डकार आने के पश्चात की आनंदाभूति अवर्णनीय है। रात 9 बजे हम अपने गेस्ट हाऊस में पहुंच चुके थे। कल घूमने की तैयारी रात नींद में की जाएगी, यह सोच कर शटर गिरा दिया।
(अक्षर धाम के चित्र नहीं होने के कारण अन्य चित्रों के साथ पोस्ट) ……… आगे पढें
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अदभुत शिल्पकारी : रुड़ा बाई नी बाव -રુદ઼ા બાઈ ની બાવ


अड़ालज का रास्
मारुतिनंदन रेस्टोरेंट से भोजन करके गांधीनगर मार्ग पर बढते हैं, इस मार्ग पर आगे चल कर बाएं हाथ को अड़ालज लिखा हुआ एक बोर्ड लगा है। हमारी गाड़ी यहीं से एक गोल चक्कर लेती है और अड़ालज की ओर बढ जाती है। बावड़ियाँ तो बहुत देखी हैं। लेकिन जिग्नेश ने बताया कि रुड़ा बाई नी बाव नामक यह बावड़ी कुछ खास हैं। खंडहरों में चक्कर काटने वाले मेरे जैसे आदमी को सुनकर ही अच्छा लगा। हमने तुरंत निर्णय ले लिया बाव देखने का। थोड़ी देर में अड़ालज से पहले दाएं हाथ की तरफ़ मुक्तिधाम दिखाई देता है। मुक्ति धाम गाँव में सही जगह पर था। अगर व्यक्ति को मुक्ति हमेशा याद रहे तो दुनिया चमन हो जाए, अमन हो जाए। लेकिन याद कहाँ रहता है, आदमी बड़ी जल्दी भूल जाता है। मुक्तिधाम से दाएं मुड़ने पर एक बड़ा चौक आता है, उसके चारों तरफ़ सब्जी वालों ने डेरा लगा रखा है। इसके दाएं तरफ़ एक लोहे का गेट नजर आता है। उसके दाएं तरफ़ रुड़ाबाई नी बाव की जानकारी देते हुए एक पत्थर लगा है।

बाव में शिल्पकार
हम गेट से बावड़ी में प्रवेश करते हैं वहाँ बाएं हाथ की तरफ़ एक मंदिर है और सीधे में बावड़ी का प्रवेश द्वार है। वावड़ी 5 मंजिली है और लगभग 100 से उपर सीढियाँ हैं नीचे उतरने के लिए। बावड़ी का प्रस्तर शिल्प अदभुत है। कारीगर ने बहुत ही बारीकी से छेनी हथौड़े का काम कर अंकन किया है। पहला स्टेप उतरने बाद दोनो तरफ़ सुंदर झरोखे बने हुए हैं। झरोखों पर बेल बूटे से लेकर हाथी, घोड़े, नर-नारी इत्यादि कुशलता से उकेरे गए हैं। हाथि्यों की तो पूरी फ़ौज ही है। बावड़ी को अंग्रेजी में स्टेप वेल कहा जाता है। मैने अन्य जगहों पर बावड़ियाँ देखी हैं पर इस बावड़ी की कला अद्भूत है। बावड़ी में नीचे उतरने पर अंतिम मंजिल पर जाली से ढंका हुआ एक कुंआ है। इस कुंए तक जाने नहीं दिया जाता। यह बावड़ी पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में है। 

सिक्का फ़ेंक तमाशा
कुछ लोग कुंड के पानी में सिक्के फ़ेंक रहे थे, फ़ेंका गया सिक्का पानी में सीधे डूबता नहीं था। कई देर तक वह पानी के उपर चक्कर काटता रहता था। हमने भी कई सिक्के फ़ेंक कर जायजा लिया। लगा कि पानी घनत्व अधिक होने के कारण सिक्का सीधे नहीं डूब रहा था। सिक्का कई देर तक कुंए में गोल चक्कर काटते हुए डूबता उतरता रहता और फ़िर पानी पर तैरने लगता। पानी पर सैकड़ों सिक्के तैर रहे थे। अन्य किसी कुंए में सिक्के फ़ेंकने के बाद पानी में डूब जाते हैं, लेकिन इस बावड़ी में सिक्के नहीं डूब रहे थे।अगर आप जाएं तो प्रयोग करके देख सकते हैं। बावड़ी के निर्माण में लाल सेंड स्टोन का प्रयोग किया गया है। शिला लेख में लिखा है कि पत्थर लाने के लिए जिन गाड़ियों का उपयोग किया गया था उनके तेल का खर्च एक लाख स्वर्ण मुद्राएं था। मुझे समझ नहीं आया कि 1550 में कौन से ऐसे वाहन चलते थे जिन्हे चलाने के लिए तेल का उपयोग किया जाता होगा।

बावड़ी का सुंदर दृश्य, यहीं पर ब्राह्मी मे लिखा हुआ शिलालेख है
बावड़ी निर्माण के पीछे की कहानी यह है कि अड़ालज गाँव पाटण राज्य के अंतर्गत आता था। राजा वीर सिंह बाघेला ने वेबु राज्य के सामंत ठाकोर को लड़ाई में हराकर उसके राज्य पर कब्जा किया तथा उसकी रुपवती कन्या लाल बा के साथ शास्त्रोक्त पद्धति से विवाह रचाया। स्थानीय बोली में रुड़ा नेक काम करने वाले को कहा जाता है। लाल बा के प्रजा वत्सल होने के कारण प्रजा के प्रति उसका अपार स्नेह था। वह अपनी प्रजा का ख्याल रखती थी इसलिए उसे रुड़ा बाई कहा जाने लगा। 1550 में भयंकर अकाल पड़ा, राज्य में त्राहि-त्राहि मच गयी। इससे द्रवित होकर रानी लाल बा ने अपने खजाने से 5 लाख स्वर्ण मुद्राएं प्रजा की सहायता के लिए निकाली और बावड़ी का निर्माण करना तय किया। तब से यह बावड़ी रुड़ा बाई नी बाव के नाम से जानी जाती है। यह बावड़ी गुजरात की शिल्प धरोहरों के मुकुट मे चमकता हुआ एक हीरा है। शिल्प कला की एक धरोहर है। 5 माले की यह बावड़ी शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना है। 

बावड़ी से बाहर आते हुए नामदेव जी के साथ
कुछ समय बाद अहमदशाह ने वीरसिंह वाघेला को युद्ध में मार गिराया और उसके राज्य पर कब्जा कर लिया। लाल बा की सुंदरता के चर्चे उसने सुन रखे थे। लाल बा के पास विवाह का प्रस्ताव भेजा। जब यह घटना घट रही थी तब बावड़ी का काम चालु था। इसका गुम्बद एंव तीन दरवाजे बनने बाकी थे। लाल बा ने चतुराई का सहारा लिया और अहमदशाह को संदेश दिया  कि जब बावड़ी का कार्य पूरा हो जाएगा वह उसके साथ विवाह कर लेगी। शायद अहमदशाह ने लाल बा की बात नहीं मानकर जिद की होगी तब हार कर लाल बा ने अपना सतित्व बचाने के लिए बावड़ी की पांचवी मंजिल से कूद कर जल समाधि ले ली। रुड़ा बाई (लाल बा) के जान देने के पश्चात बावड़ी का काम अधुरा रह गया। अभी तक बावड़ी का गुम्बद एवं तीन दरवाजों का अधूरा पड़ा है। शिल्पकारों का अधूरा छोड़ा गया काम भी स्पष्ट दिखाई देता है।

हाथीयों की फ़ौज की मौज
सुंदर शिल्पकला युक्त निर्माणों के साथ शिल्पकारों की पीड़ा भी जुड़ी होती है। यहाँ भी वही हुआ जो अन्य जगहों पर सुनाई देता है। राजा ने उन शिल्पकारों को मार डाला जिन्होने ने बावड़ी का निर्माण किया था। इस तरह की बावड़ी का निर्माण अन्य स्थान पर न कर सके। निर्माण के पुरुस्कार स्वरुप शिल्पकारों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। मैने जहाँ भी निर्माण देखे हैं वहाँ पर बनाने वाले शिल्पकारों की कोई चर्चा ही नहीं होती। उनके नाम निशान नहीं होता। जिन्होने बनवाया है उनका ही नाम होता है। हाँ अपवाद स्वरुप आमेर के किले के शिल्पियों दिलावर सिंह और मोहन लाल का नाम किले के साथ जुड़ा है। रुड़ाबाई की बाव के शिल्पियों का भी कोई नाम नहीं निशान नहीं है। 

इतिहास के झरोखे में
इस बावड़ी में ब्राह्मी लिपि में एक शिलालेख है जिस पर रुड़ा बाई की बाव के निर्माण के विषय में लिखा है। मैं शिलालेख की तश्वीर लेना चाहता था। यह शिला लेख 4 थी मंजिल पर लगा है और उपर की सीढियाँ बंद होने के कारण नीचे से एक फ़िट के छज्जे से होकर उस तक पहुंचा जा सकता है। साथ की दीवाल पर कोई पकड़ नहीं होने के कारण दुर्घटना की आशंका भी थी। पुरातत्व सर्वेक्षण के चौकीदार ने बताया कि इस रास्ते से कुछ लो गिर कर प्राण गंवा बैठे हैं। इसलिए रास्ता बंद कर दिया है। मैने खतरा उठाना ठीक नहीं समझा। शिलालेख की फ़ोटो तो और कहीं भी मिल जाएगी। अगर किसी और ने फ़ोटो नहीं ली होती तो एक बार प्राण की बाजी लगाई जा सकती थी। बाव के उपरी हिस्से में लोहे के जाल लगा दिए गए हैं तथा एक बगीचा भी बना है। जहाँ लोग तफ़री करते दिखाई दिए।

बावड़ी के उपर का दृश्य
बाव की उपरी सतह पर रस्सी से पानी निकालने के लिए चकरी की व्यवस्था भी है। साथ ही गगरियाँ रखने के लिए खेळ का निर्माण भी किया गया है। हमने बाव को अच्छी तरह से देखा। अब समय हो गया था आगे बढने का। विदेशी पर्यटक भी दिखाई दे रहे थे, यह बाव गुजरात पर्यटन के नक्शे पर है। जिसके कारण जो भी पर्यटक आते हैं वे इस बाव को जरुर देखते हैं। अहमदाबाद के नजदीक होने के कारण यहाँ तक आने के लिए सभी तरह के साधन उपलब्ध हैं। अहमदाबाद से गांधी नगर के लिए शानदार सड़क जाती है। अगर यहाँ के लोगों का ट्रैफ़िक सेंसर सही काम करे तो यह दूरी बहुत ही कम समय में पूरी की जा सकती है। रुड़ाबाई  की बाव देखना सुखद रहा। बाजार से होते हुए हम वापस गांधीनगर की ओर चल पड़े।………आगे पढें
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